बुधवार, 29 दिसंबर 2021

खण्डेला का इतिहास भाग-16

सतनामी विद्रोह खण्डेला बही




गतांक से आगे-
सतनामी विद्रोह-
इस किस्से का जिक्र इसलिए जरूरी है क्योंकि इस विद्रोह ने पूरे मुगलिया तख्त को हिलाकर रख दिया था और कालक्रम अनुसार यह घटना भी शेखवाटी के नजदीकी क्षेत्र की होने के कारण जिक्र होना जरूरी था। इसी दरमियाँ औरंगजेब के ध्यान दूसरी रियासतों की तरफ गया नही।
इसी दौरान सतनामी विद्रोह शुरू हो गया जो 15 मार्च 1672 में हुआ।सतनामी एक धार्मिक समूह था और नारनोल के पास बिजेसर गाँव के वीरभान द्वारा 1540 में स्थापित किया हुआ था।
एक सतनामी किसान और सरकारी चौकीदार के मध्य मारपीट शुरू होने के बाद इस लड़ाई ने उग्र रूप धारण कर लिया था।सतनामियों ने संगठित होकर विद्रोह शुरू कर दिया और धीरे धीरे इसने आंदोलन का रूप ले लिया। पांच हजार से अधिक सतनामी इक्कठे होकर मार काट करने लगे।नारनोल का बादशाही फौजदार जान बचाकर भाग निकला।विद्रोहियों ने नारनोल कस्बा लूट लिया,मस्जिदें ढहा दी गयी और गाँवो में लगान लेना शुरू कर दिया।

सतनामी मुंडिया कहे जाते थे जिसमें खाती, सुनार, रेगर आदि सभी मेहनतकश हिन्दू जातियों के लोग इस सम्प्रदाय में थे। नारनोल का फौजदार करतब खान था उसने आक्रमण किया तो कई सतनामी मारे गए लेकिन फौजदार को भगाने में कामयाब रहे और 17 कोस तक सारे इलाके लूट लिए गए। इस विद्रोह का लाभ उठाकर पड़ोसी राजपूत जमीदारो ने भी कर देना बंद कर दिया जिसमे खण्डेला भी एक था।

सतनामियों के चमत्कार की खबर सुनकर बादशाही सेना भयभीत हो गयी।तब बादशाह ने अपने झंडे पर उर्दू में आयतें लिखवाकर चिपकवाई ताकि सैनिको की हौसला अफजाई हो सके। इसके बाद एक दल रन अन्दाजखां को तोपखाने के साथ और हमीद खान को 500 अश्वरोही टोली के साथ भेजा गया। यह बड़ी भीषण लड़ाई हुई ,देखने वालो ने इसे" महाभारत" की संज्ञा भी दी। सतनामी बड़ी बहादुरी से लडे  और शहीद हो गये। यह विद्रोह 15 मार्च 1672 में शुरू हुआ और 7 अप्रैल 1674 में पूर्ण रूप से दबाया गया।

इस विद्रोह ने पूरी राजपूताने की जनता का हौसला बढ़ाया और औरंगजेब को हिला कर  रख दिया। इसके बाद प्रत्येक जगह औरंगजेब के खिलाफ विद्रोह होने लगे और वह इन विद्रोहियों को दबाने में ही लगा रहा।
#क्रमशः

शनिवार, 25 दिसंबर 2021

खण्डेला का इतिहास भाग-15

राजा बहादुर सिंह खण्डेला




गतांक से आगे-
वरसिंहदेव के बाद खण्डेला की राजगद्दी पर आसीन हुए उनके बड़े पुत्र बहादुर सिंह ।इसी समय दिल्ली का सुल्तान औरंगजेब आलमगीर के नाम से बादशाह जबरदस्ती बन चुका था। जी हां, जबरदस्ती इसलिए कि ,उसने अपने पिता शाहजहाँ की बीमारी का सुनते ही छोटे भाई मुराद को साथ लेकर विद्रोह कर दिया। उसी विद्रोह को लड़ता छोड़ वरसिंहदेव खण्डेला आ गए थे।जिससे औरंगजेब को तो उल्टा फायदा ही हुआ और  वह आसानी से राजा बन गया। अपनी क्रूर नीति के अनुसार औरंगजेब धीरे-धीरे सबको अपने रंग दिखाने लगा था।

उसने खण्डेला जैसी छोटी रियासत के नए राजा बहादुर सिंह को दक्षिण में अपने पूर्ववर्ती पुरखों की तरह किलेदार बना दिया। अब बहादुर सिंह दक्षिण में किलेदार थे। उधर महाराष्ट्र में शिवाजी मुगलई सेना को छापामार युद्ध मे शिकस्त दे रहे थे। उसमे बहादुर सिंह को भी कई कष्ट वहाँ झेलने पड़े और कुल मिलाकर बहादुर सिंह भी अपने पिता की तरह मुगलिया पद और किलेदारी छोड़कर खण्डेला आने का मन बना ही रहे थे। उसी दौरान उनके समकक्ष सेनापति जो औरंगजेब का चहेता था उसका नाम बहादुर खान था।

वह बहुत सारे छोटे-मोटे विद्रोह और लड़ाइयां जीत कर अपने प्रदर्शन को दिखा चुका था उसका असली नाम मलीक हुसैन था लेकिन बहादुर खान के नाम से प्रसिद्ध ही चुका था। नवाब बहादुर खान और बहादुर शाह की जब एक ही जगह नियुक्ति हुई तो नवाब को बहादुर सिंह से ईर्ष्या होने लगी। "केसरीसिंह समर"में कहा गया है कि- बहादुर खान ने राजा बहादुर सिंह से कहा-अपना नाम बदल लो वरना अपने घर जाओ।

"सिंघ बहादुर सिंह सूं, बदतु बहादुर खान।
फेरि देहु निज नाम को,कह तुम जावहु थान।।"

शायद नवाब को डर हो कि कही उसकी उपलब्धियों को इतिहास बहादुर सिंह के नाम से जाने इस वजह से ऐसा कहा गया हो?लेकिन असली मत क्या था किसी को नही पता।
इसी रचना में आगे लिखा है कि -बहादुर सिंह नगाड़ो पर डंका दिलवाता है और खण्डेला की तरफ रुख कर लेता है।

"चढ़यो नृपति रिसकर, बाजत सुने निसान।
बाट घाट रोकन निमित, लिखे खान फुरमान।।"

नवाब बहादुर खान ने फरमान जारी किया कि- यह बचकर अपने राज्य को नही जाना चाइये और उसने उसके पीछे एक टुकड़ी भेजी लेकिन बहादुर सिंह जितना जंगल को समझते थे उतना कोई नही ।उन्होंने नर्मदा नदी के तट पार कर किनारे से अपनी सेना को खण्डेला तक कब पहुँचा दिया,टुकड़ी को पता भी नही चला। इस प्रकार जोधपुर जैसी बड़ी रियासत की तरह खण्डेला जैसी छोटी रियासत ने भी अहंकारी और हिन्दू विरोधी औरंगजेब के साथ छोड़ दिया था और ये दूसरी बार था जिससे दिल्ली में बैठा औरंगजेब बोखला उठा और बोखलाए भी क्यों न आखिर दक्षिण में शिवाजी और बुंदेलखंड में छत्रसाल उंसके दिल का नासूर बन गया था और अब तो राजस्थान के राजाओं ने भी कुटिल औरंगजेब के साथ छोड़ दिया था।

ऐसा बताया जाता है कि दक्षिण के एक पंडित औरंगजेब के पास अकूत सोने चांदी के खजाने की जानकारी लेकर आया था लेकिन दक्षिण जाने के रास्ते मे महाराष्ट्र की सीमा और मध्य प्रदेश के मालवा की सीमा उसे पार कैसे जाने देती और अब दक्षिण के प्रवेश द्वार वाले बुरहान पुर पर कोई राजा औरंगजेब की तरफ नही था। उसी सोने चांदी के लालच में औरंगजेब अंधा हो चूका था वह यह भी मानता था कि उसके पिता ने सारा दिल्ली खजाना स्थापत्य कला  और अय्याशियों में खत्म कर दिया था।

राजा बहादुर सिंह के खण्डेला आना अब औरंगजेब को अच्छा नही लगा वह खण्डेला को सबक सिखाने की जुगत में लग गया। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि  औरंगजेब की हिन्दू विरोधी नीतियों और राजा बहादुर सिंह की शिवाजी की हिन्दू धर्म रक्षार्थ मुगलो से लड़ाई के कारण उनकी ,शिवाजी के प्रति सहानुभूति रही है।इनका कहना है कि जब राजा बहादुर शिवाजी से मिले तो उनकी बातों ने औरंगजेब के प्रति नफरत और बढ़ा दी जिसके बाद राजा बहादुर सिंह खण्डेला लौट आये। इसी दरमियाँ  विक्रमी 1724 में मिर्जा राजा जयसिंह जयपुर के स्वर्गवास हो गया जिससे औरंगजेब की नीतियां और खुलकर सामने आने लगी।

मन्दिरो में पूजा आरती बन्द करवा दी गयी और तभी औरंगजेब ने नारनोल के फौजदार को खण्डेला के राजा बहादुर सिंह को दंड देने हेतु भेजा गया।
अगले भाग में खण्डेला पर हुए आक्रमण के वृतांत आएंगे।
#क्रमशः

गुरुवार, 16 दिसंबर 2021

खण्डेला का इतिहास भाग-14

राजा वरसिंहदेव-एक अनोखा राजा




गतांक से आगे-
राजा दलथम्बन द्वारकादास के बाद उसके ज्येष्ठ पुत्र वरसिंहदेव खण्डेला की राजगद्दी पर बैठे। द्वारकादास के तीन पुत्र होने का वर्णन मिलता है।
1 वरसिंहदेव
2 विजय सिंह
3 सलेदी सिंह

"बन्धु नृपति के दोय भुव, बीजै सलेदिराय।
तिन्ही करी सेवा सुभग,वित्त सम भूमिपाय।।"

वरसिंहदेव की नियुक्ति काबिलगड के किलेदार के रूप में थी और 800 का मनसब प्राप्त था। वरसिंह देव का धरमत के युद्ध मे लड़ने का वर्णन मिलता है। उंसके साथ भाई विजय सिंह और जयचंद दलपतोत, श्यामचन्द बलभद्रोत आदि योद्धाओ ने भी भाग लिया था। धरमत का युद्ध भी दिल्ली सल्तनत के उत्तराधिकार का युद्ध था जिसमे शाहजहाँ के बीमार होते ही उसके पुत्रो में मुराद और औरंगजेब ने बिद्रोह कर दिया था और शाही सेना पर आक्रमण कर दिया । इस युद्ध मे जोधपुर के महाराजा जसवंतसिंह और कासिम अली नेतृत्व कर रहे थे और सामने औरंगजेब और मुराद की सेना थी यह युद्ध उज्जैन से 14 मील दूर धरमत में लड़ा गया जिसमें औरंगजेब विजयी हुआ और दिल्ली की तरफ बढ़ गया। 
वरसिंहदेव ,जसवंत सिंह जोधपुर के विश्वस्त सेनापतियों में से एक रहे थे। लेकिन बाकी राठौड़ सरदारों द्वारा सहमति से जोधपुर महाराजा जसवंत सिंह को बचाकर  जोधपुर लाया गया। और किवदंती है कि जब महाराजा जब इस मुगल उत्तराधिकार युद्ध मे लड़ना उचित न समझकर जब वापस आये तो वरसिंहदेव को भी यह न्याय सम्मत लगा और उसने उस युद्ध मे शाहजहाँ के चारों बेटों को लड़ता छोड़कर खण्डेला आ गया जिसके कारण खण्डेला आगे जाकर मुगलों के कोप का भाजन भी बना और उसी प्रकार का दंड औरंगजेब ने राजा बनते ही जोधपुर को भी दिया।
वरसिंहदेव के भाई थे विजय सिंह और सलेदी सिंह। विजय सिंह को मांडोता गाँव की जागीर के साथ 7 गाँव और मिले थे।मांडोता में उसने एक दुर्ग का निर्माण भी करवाया ,उंसके खण्डहर आज भी विद्यमान है।

सलेदी सिंह तीसरा पुत्र था, और महान योद्धा राठौड़ रायमल मालदेवोत का दोहिता था,जिसने खण्डेला के पास सलेदीपुरा गाँव बसाया और अपने लिए एक दुर्ग का निर्माण भी करवाया। यह दुर्ग आज भी अरावली की सुरम्य वादियों में यों ही खड़ा है, लेकिन इसके कुछ हिस्से जर्जर हो गए है। सलेदी सिंह को खण्डेला के पास उदयपुरवाटी रोड पर स्थित सलेदीपुरा और इसके अलावा रामपुरा दाधिया भी जागिर में मिला था। कालांतर में सलेदीपुरा खण्डेला छोटा पाना के राजाओं के अधिकार में चला गया लेकिन  दादिया की तन में बसी हुई भौमियों की ढाणी आज भी सलेदिराय के वंशजो के अधिकार में है।

वरसिंहदेव अपने पूर्वजों की तरह ज्यादा रण कौशल में न होकर एक साधारण राजा हुए।राजा वरसिंह देव की मृत्यु विक्रमी 1720 में हुई और दाह संस्कार जगरूप जी के बाग में सागल्या वाली कोठी के समीप हुआ, इसका वर्णन सूर्यनारायण शर्मा द्वारा लिखित खण्डेला का इतिहास में मिलता है।
इनके आठ पुत्र थे जिनमें ज्येष्ठ बहादुर सिंह और बाकी में श्याम सिंह, अमरसिंह, जगदेव, भोपत सिंह,प्रताप सिंह,मोहकम सिंह और रूड सिंह थे।

वरसिंहदेव के काल मे खण्डेला में कुछ अन्य काम भी हुए जिनमे ब्राह्मणों को उसने भूमि दान देकर आत्मनिर्भर बना दिया था और इसके समय 16 तुलादान का वर्णन केसरीसिंह समर में मिलते है। संगीत ,नृत्य और वाद्य में विशेष रुचि होने के कारण दूर-दूर के गायक और वाद्य विशेषज्ञ उंसके दरबार मे थे। विद्वानों और संगीतज्ञों को वह सोनेहरी साज के घोड़े बख्सीस करता था।
राजा वरसिंहदेव शिकार के शौकीन भी थे और सघन वनों में प्रतिदिन भृमण करते थे।
केसरीसिंह समर के अनुसार वह शेर की मांद में उसे जगाकर शेर से कटार लेकर भीड़ जाता था और उसे धराशायी कर देता था।
उसके राजदरबार में अपने भाई बन्धुओ से बड़ा लगाव था। उसके भाई- बन्ध सभा मे बैठे हुक्के का कश खींचते रहते थे और नित्य राज -काज की बातें किया करते थे।उसने अपनी एक पुत्री का विवाह जसवंत सिंह प्रथम जोधपुर से किया और दूसरी का बीकानेर के राजा अनूप सिंह से किया जो खुद बीकानेर के कवि, लेखक और पुस्तकप्रेमी राजा के रूप में विख्यात हुए। बीकानेर में अनूप पुस्तकालय उनकी ही देन है जहां विलियम टेसीटोरी ने सारी किताबे पढ़ डाली थी।
राजा वरसिंहदेव का व्यायाम और कुश्ती में भी झुकाव था और रामायण भागवत और महाभारत भी अपने विद्वानों से सुनता रहता था जो इस दोहे(केसरीसिंह समर ) से पता चलता है-

"साध्यो प्राणायाम जिन,सुनी भागोत सुधर्म।
किती बार भारत सुन्यो,किये सभी जिगी कर्म।।"
#क्रमशः

गुरुवार, 9 दिसंबर 2021

खण्डेला का इतिहास भाग-13

द्वारकादास शेखावत (दलथम्बन)का शौर्य




गतांक से आगे-
इसी समय का एक और किस्सा है जिसमे द्वारकादास को दक्षिण की चौकी पर तैनात किया जाता है जहाँ उनके साथ राव रतन हाड़ा को भी तैनाती दी जाती है।
इसके पहले (हरियाणा व अलवर के पास का क्षेत्र)के मेवात में खानजादा विद्रोह हुआ जिसमें पूरे पड़ोसी क्षेत्र में अव्यवस्था फैल गयी थी उसका दमन करने के लिए द्वारकादास अपनी सेना लेकर निकले और उनके विद्रोह का दमन किया लेकिन यह कार्य बड़ा दुष्कर था क्योंकि मेवात के विद्रोह दुर्गम पर्वतों में आक्रमण करके छिप जाते थे।फिर भी द्वारकादास ने उनके गढ़ी और खुफिया ठिकानों को ध्वस्त कर दिया था।
मेवात के खानजादा कोटला के यादव क्षत्रिय  वंशज थे जिन्हें बाद में इस्लाम कबूल करवाया गया था, इनके वंशज आज भी मेवात क्षेत्र में निवासरत है।यह कार्य फिरोजशाह तुगलक के शासनकाल में हुआ था। यह विद्रोह अगर नही दबाया जाता तो शायद आज नक्शा कुछ अलग होता।

नूरजहाँ के चाल बाजी के  कारण शहजादा खुर्रम को यह लगने लगा कि अगला राजा उसको नही बनाया जाएगा इसलिए वह विद्रोह करके दिल्ली से भाग दक्षिण की तरफ भाग आया, जबकि दक्षिण की सूबेदारी द्वारकादास शेखावत, राव रतन हाड़ा, माधो सिंह कछवाह, जैत सिंह राठौड़ आदि योद्धाओ के पास थी। खुर्रम ने अब्दुल्ला खा और शाहकुली खान को आक्रमण हेतु भेजा लेकिन सामने इतने सारे राजपूत योद्धा थे उंसके सिपहसालार से क्या ही हार मानते। बताया जाता है कि अब्दुल्ला तो एक तीर के बाद ही ऐसा गायब हुआ की नजर तक नही आया और शाहकुली खान ने बहादुरी से लड़ाई की लेकिन वह हार गया। शहजादा खुर्रम अपनी टुकड़ी के साथ पीछे था लेकिन वह आसानी से बन्दी बनाया जा सकता था लेकिन राव रतन हाड़ा चाहते थे कि यही अगला बादशाह बने इसलिए उसे भगा दिया गया क्योंकि नूरजहाँ जिसे राजा बनाना चाहती थी वह किसी सूरत से राजा बनने लायक नही था  और इसके लिए द्वारकादास और माधो सिंह को खुर्रम से बात करने भेजा गया था। ऐसा वर्णन वंश भास्कर में दिया गया है।

विक्रमी 1684 में जहाँगीर की मृत्यु हो गयी और उसका पुत्र खुर्रम शाहजहाँ के नाम से राजा बना जिसने दक्षिण में नियुक्त सभी सरदारों के मनसब में दुगनी वृद्धि कर दी। इसके बाद शाहजहाँ इन पांच सरदारों से सलाह मशविरा बिना कोई निर्णय नही लेता था। राजस्थान के महान इतिहासकार ओझा जी लिखते है कि द्वारकादास का 1500जात और 1000 सवार का मनसब था।

#खानजहां_का_विद्रोह
जब शाहजहाँ नया बादशाह बन गया तो खानजहां नाखुश था जिसे नूरजहाँ राजा बनाना चाहती थी। वह फिर शाहजहाँ की तरह विद्रोह बनकर दिल्ली से दक्षिण निकल गया क्योंकि उसको डर था कि उसका कत्ल करवा दिया जाएगा। इसलिए शाहजहाँ ने भी उंसके पीछे उसे मारने हेतु योद्धा भेजे लेकिन वह किसी को हाथ नही लगा और निजामशाही शासन में शरण ले ली।वह वहां से बालाघाट व बुन्देलखण्ड में सेंध मारता रहा।
जब द्वारकादास से सहायता ली गयी तो द्वारकादास अपनी टुकड़ी के साथ गाँव मे पहुँचे और छापामार युद्ध शुरू हुआ । थोड़ी देर बाद खानजहां  ने द्वारकादास को द्वंद युद्ध हेतु ललकारा कि शेरेमर्द है तू सुना है।
अगर वाकई ऐसा है तो बाहर निकल ।चूहों की तरह बिल में क्या घुस रखा है।द्वारकादास जी बाहर निकले और चुनोती स्वीकार की। जब आपसी भिड़ंत हुई तो द्वारकादास शेखावत ने अपने बरछे(सांग) के एक प्रहार से उंसके वक्षस्थल को विदीर्ण कर दिया लेकिन धराशाही होते हुए खान ने तलवार के प्रहार से राजा का शिरच्छेदन कर दिया और दोनों योद्धा एक साथ धरती पर गिरे। ऐसे बताया जाता है कि शीश कटने के बाद उनका धड़ भी लड़ता रहा था।इस लड़ाई में उनका भतीजा मान सिंह भी 34 योद्धाओ के साथ गाँव की रक्षा हेतु शहीद हो गया।
1.एक पुराना दोहा है जो "केसरी सिंह समर"  में लिखा है,यह बताता है-

"द्वार सेल घमोड़ियो, खानीजहाँ उर खण्ड।
पड़ते खान पीछाटियो, राजा सीस दुरण्ड।।"

2.प्रसिद्धअंग्रेज  इतिहासकार कर्नल टॉड ने लिखा है कि -फरिस्ता ने खानीजहाँ की जीवनी में खान का द्वारकादास के हाथ से और द्वारकादास का खान के हाथ से मारे जाने का विवरण ही लिखा था।

3. महाकवि सूर्यमल्ल मिश्रण ने "वंश भास्कर'"में लिखा-

"पृतना सह बुरानपुर, पत्तो पहुँ जसपीन।
कूर्म द्वारकादास कँह, कटकईस तँहक़ीन।।"

अर्थात सेना के बुरहान पुर पहुचने पर द्वराकादास को सेनापति बनाया और वह अल्प योद्धाओ के साथ भी भीषण युद्ध किया।
द्वारकादास को #दलथम्बन (सेना को रोकने वाला) की उपाधि शायद इसीलिए दी गयी थी। द्वारकादास भगवान नृसिंह के भक्त थे।

भूमिदान- इस युद्ध के 27 दिन पहले द्वारकादास ने धर्मपुरा दक्षिण में गंगादास मिश्र के पुत्र छितर मिश्र को पट्टा दिया जिसमें खण्डेला कस्बे की 101 बीगा भूमि प्रदान की।(खण्डेला छोटा पाना दस्तावेज)
#क्रमशः

शुक्रवार, 3 दिसंबर 2021

खण्डेला का इतिहास भाग-12

द्वारकादास रायसलोत और खण्डेला



गतांक से आगे-
अब खण्डेला की राजगद्दी पर विक्रमी 1680 में द्वारका दास बैठ गए थे जो गिरधर जी के पुत्र और राजा रायसल के पौत्र थे। द्वारकादास जी मुगलो के दो बादशाह जहाँगीर और शाहजहाँ के समकालीन थे। इनको भी नियमानुसार शाही सेवा में जाना पड़ा, अपने पिता की जगह। द्वारकादास जी का एक किस्सा बड़ा प्रसिद्ध था,जिसके बारे में चर्चा करते है-

एक दिन राजा द्वारकादास जी जब शाही दरबार मे उपस्थित थे तब बादशाह एक शेर पकड़ लाये और उस शेर से युद्ध करने के लिये उन्होंने प्रचलित रीति से सूचना निकाली। उस समय मनोहरपुर के राव जी भी वहाँ उपस्थित थे।राव जी कुभावना से प्रेरित होकर बादशाह से कहा कि - हमारी जाति के रायसलोत द्वारकादास जो प्रसिद्ध वीर नाहर सिंह जी के शिष्य रहे है,इस शेर से कुश्ती करने के पात्र, एक मात्र पूरे दरबार मे वही है। ये राव जी वही थे जो राव लूणकरण जी के वंशज थे, जो कि रायसल जी के बड़े भाई थे और उनकी प्रगति से ईर्ष्या करते थे और ऐसे ही एक किस्सा पहले रायसल जी और लूणकरण जी के बारे में पढ़ा था जिसमे प्रसिद्ध इतिहासकार कर्नल जेम्स टॉड ने लिखा था।

द्वारकादास जी अपने जाति भाई की चालाकी को ताड़ गए,फिर भी प्रसन्नतापूर्वक शेर से लड़ने के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। पूरा मैदान दर्शको से भर गया। द्वारकादास जी स्नान कर पूजा की सामग्री लिए शेर के सामने उपस्थित हुए और शेर को तिलक किया,गले मे माला पहनाई और स्वयं आसन पर धीर भाव से बैठकर अर्चन करने लगे। शेर बहुत देर तक द्वारकादास जी को सूंघता रहा लेकिन कुछ किया नही। दर्शक ये देखकर दंग रह गए।

तब बादशाह भी अचंभे में थे कि ये कैसे सम्भव है?लेकिन फिर द्वारकादास जी को अपने पास बुलाया। बादशाह को विश्वास हो गया था कि यह कोई दैवीशक्ति सम्पन्न पुरुष है। बादशाह ने द्वारकादास को वर मांगने को कहा।  द्वारकादास जी ने निवेदन किया कि अगर कुछ देना ही है तो ये वचन दो कि आज के बाद किसी दूसरे को ऐसी विपति में न फसाया जाए। बादशाह बोले - आपके हुक्म को अब हमेशा ध्यान में रखा जाएगा।

ऐसे किस्सों पर यकीन तो मुझे भी नही होता लेकिन जब इतिहासकारों ने लिखा है तो कुछ तो बात अवश्य हुई होगी और फिर राजा भरत का किस्सा तो सबने पढ़ा ही होगा जो कि वन में शेरों के साथ ही खेलता था।
#क्रमशः

सोमवार, 29 नवंबर 2021

खण्डेला का इतिहास भाग-11

राजा गिरधर दास खण्डेला



गतांक से आगे-
राजा रायसल के बाद खण्डेला की गद्दी पर उनके छोटे पुत्र गिरधर दास जी बैठे।
गिरधर जी और राव तिरमल जी सहोदर भाई थे। इनको राजगद्दी मिलने के कई कारण रहे है।राजा रायसल के ज्येष्ठ पुत्र लाडख़ान के माधोदास आदि पुत्रो ने अपने पितामह रायसल के जीवन काल मे उंसके विरुद्ध विद्रोह करके उनके मन को खिन्न कर दिया था।तभी से राजा रायसल अपने राज्य हेतु किसी सुयोग्य और आज्ञाकारी पुत्र को राजा बनाने की मनः स्थिति बना चुके थे।

राजा गिरदर के अभियानों में अमरचम्पू के विरुद्ध लड़े गए युद्ध मे हरावल में थे और वीरता से युद्ध किया और विजयी हुए। तब रायसल ने अपने मन को पक्का करते हुए निर्णय ले लिया था। ऐसा सम्भव हो कि रायसल ने जहाँगीर को अपनी मनः स्थिति बतायी हो तभी जहाँगीर ने खण्डेला का राजा उसे घोषित कर दिया था। दक्षिण के अन्य अभियानों में भी गिरधर थे उनको 800 जात और 800 सवारों का मनसब प्राप्त था।

बिलोचो के विद्रोह को राजा गिरदर द्वारा दबाया गया और अंत में बादशाह ने उन्हें दक्षिण में सूबेदार बनाकर रायसल की जगह भेज दिया था।
अमरसर के पाटवी राव जी ने आकर गिरधर को टीका दिया।किंतु राजा गिरधर अपनी उच्च स्थिति का आनन्द ज्यादा समय तक नही भोग सके।
जहाँगीरनामा में लिखा है कि-जब राजा गिरधर दक्षिण में नियुक्त थे तब,
शहजादा परवेज के नोकर बारह गाँव के सय्यद कबीर के एक सय्यद ने अपनी तलवार उजली करने के लिए सिकलीगर को दी थी।उसकी दुकान राजा गिरधर की हवेली के पास थी। सय्यद दूसरे दिन तलवार लेने आया, तो मजदूरी की बात पर झगड़ा हो गया। अब सय्यद के नोकरों ने सिकलीगर की पिटाई कर दी।

इसलिए गिरधर जी के लोगो ने सिकलीगर का पक्ष लेकर सय्यद के लोगो को पीटा। दो -तीन बारह गाँव के सय्यद उधर रहते थे, वे हल्ला सुनकर सय्यद की सहायता को दौड़े आये और बड़ी लड़ाई छिड़ गयीं।तीर व तलवार चलाने की नोबत आ गयी। सय्यद कबीर खबर पाकर 40 घुड़सवारों के साथ वहाँ पहुचा। राजा गिरदर और उनके भाई बन्द हिन्दू अचारनुसार वस्त्र (युद्ध वस्त्र)उतार कर भोजन कर रहे थे।
राजाजी ने कबीर को आया देखकर कर अपने आदमियों को अंदर बुलाकर किवाड़ बन्द कर लिए ताकि झगड़ा बढ़े नही। सय्यद कबीर किवाड़ जलाकर अंदर घुस गया और लड़ाई हो गयी। राजाजी अपने 26 नोकरों सहित मारे गए, 40 आदमी घायल हुए और 4 सय्यद मारे गए।
फिर सय्यद राजाजी की घुड़साल के घोड़े लेकर अपने घर चला गया।राजा गिरधर की इस प्रकार मारे जाने की खबर सुनकर राजपूतो का खून खोल उठा।उन्होंने अपने डेरो से सेना लेकर निकल पड़े और सय्यद पर चढ़ाई कर दी।उधर तमाम सय्यद किले के निचले मैदान में आ गए। खबर पाकर महावत खान वहां पहुँच गया उसे मामला समझते देर न लगी। वह तसल्ली देकर सय्यद को किले में छोड़ आया और राजपूतों को तस्सली देकर घर भेजा। दूसरे दिन महावत खान राजा गिरधर के पुत्रों को आश्वासन दिया कि सय्यद कबीर को पकड़ लिया जाएगा । और अगले ही दिन कबीर को पकड़ लिया गया और कैद कर दिया गया लेकिन राजपूतो को उनकी कैद पर भरोसा नही था क्योंकि दोनो के मिले होने का डर था । कुछ दिनों बाद गिरधरदास के 5 विश्वस्त लोगों ने मौका पाकर कबीर सय्यद को मौत की नींद सुला दी जिसका महावत खान को पहले से डर था। यह घटना पोष मास की विक्रमी 1680 की है।
इस प्रकार खण्डेला का अगला राजा उनके बड़े पुत्र द्वारकादास को बनाया गया तथा बाकी भाइयो को जागीरों में निवास करना पड़ा।
 भाइयो में -
1.द्वारकादास
2.किशन सिंह
3.हरिसिंह
4.गोकल
5.गोरधन
6.सूरसिंह
किशन सिंह जी बादशाही सेवा में अपने भाई के साथ चले गए और उनके भी तीन पुत्र हुए जो- जय सिंह ,अखै सिंह और महासिंह थे जिनके वंशज बावड़ी, केरपुरा और पलसाना में आज भी भूमिधारक होकर निवास करते है और लेखक खुद भी गिरधरदासोत रायसलोत शेखावत है जो गाँव केरपुरा मे निवास करते है।
बाकी खण्डेला के आस पड़ोस के गांव जैसे - दान्ता, रलावता, खुङ, ठिकरिया, बावड़ी, डूकिया, केरपुरा, गुरारा,दुदवा, राजपुरा आदि अनेक गाँवो में गिरधर जी के शेखावत निवास करते है।
#क्रमशः

शनिवार, 27 नवंबर 2021

खण्डेला का इतिहास भाग-10

राव तिर्मल जी और सीकर प्रशासन




गतांक से आगे-
यदि खण्डेला इतिहास की बात की जाए तो राजा रायसल के पुत्रो में आगे बढ़ा इतिहास केवल तिरमल जी, भोजराज जी, और गिरधर जी का ही ज्यादा मिलता है क्योंकि इनके वंशजो ने लोकतंत्र की स्थापना तक तिरमल जी के वंशजो ने सीकर(वीर भान का बास),भोजराज के वंशजो ने उदयपुरवाटी व खेतड़ी और गिरधर के वंशजो ने खण्डेला पर आजादी तक शासन किया। इन तीनों का विस्तृत इतिहास आगे के भाग में पढेंगे।
रायसल जी के दूसरे पुत्र थे राव तिरमल जी , जिनके वंशज "राव जी के शेखावत" कहलाते है। नागौर व कासली का परगना इनके पास था। बादशाह अकबर ने तिरमल जी को राव की पदवी प्रदान की थी।
तिरमल जी और गिरधर जी सहोदर भाई थे। राव तिरमल जी के नाम से ज्यादा उनके राव की पदवी प्रसिद्ध हुई।

सीकर के राव राजा और उनके वंशज तिरमल जी के वंशज होने के कारण ही राव जी कहलाते थे। नैणसी की ख्यात में इनका नाम "तिर्मण राय"मिलता है। जोधपुर महाराजा शूर सिंह ने खण्डेला जाकर तिरमल की पुत्री से विवाह किया था।राव तिरमल जी के पुत्रों में गंगाराम, बनिछोड़, जसकरण और आसकरण थे। 
आमेर के राजा मिर्जा मान सिंह के पुत्र कुंवर जगत सिंह को फिर कालान्तर में नागौर का पट्टा दिया गया और तिरमल जी कासली आ गए। इसके बाद कायमखानी नवाबो से फतेहपुर छीन लिया और दूसरी तरफ से राज्य विस्तार करना शुरू कर दिया। जब मराठों ने जयपुर महाराजा ईश्वरी सिंह पर आक्रमण किया तो गंगाधर तांत्या का दमन  भी ईश्वरी सिंह की तरफ से राव तिरमल द्वारा  किया गया।इन्होंने शेखावाटी प्रसिद्ध युद्धों में से एक "बगरू का युद्ध" मे ईश्वरी सिंह की सेना के हरावल भाग का नेतृत्व किया और आमेर को जीत दिलाई, लेकिन इसी युद्ध मे शरीर पर अनेक घाव लग जाने से राव तिरमल जी वीरगति को प्राप्त हुए।

आगे आने वाली इनकी पीढ़ी में जगत सिंह और दीप सिंह अच्छे वीर हुए जिन्होंने एक और शेखावाटी के प्रसिद्ध युद्ध "हरिपुरा का युद्ध" मे खण्डेला के राजा केशरी सिंह की तरफ से विक्रमी 1754 में लड़े।
इनकी प्रमुख जागीरों में दूजोद, श्यामगढ़, बलारां, बठोठ, पाटोदा, सरवड़ी, जुलियासर, तिडोकी बड़ी, गड़ोदा आदि गाँव हुए।
इनका विस्तृत इतिहास आगे के हिस्सों में पढेंगे इनकी पूरी एक शाखा चली जिसने आजादी तक शासन किया सीकर में और लोकतंत्र तक सीकर इनके हाथ मे था।
इसके बाद खण्डेला,सीकर,और उदयपुर-खेतड़ी का भाग आता है, पहले कोनसा पढ़ा जाए?
#क्रमशः-

सोमवार, 22 नवंबर 2021

खण्डेला का इतिहास भाग-9

लाडखानी शेखावत और उनका धैर्य




गतांक से आगे-
राजा रायसल के 12 पुत्र थे जिनमें 7 का वंश आगे बढ़ा बाकी के कोई औलाद नही थी। जिनमें लाल सिंह, ताज सिंह, तिरमाल, भोजराज, परसराम, गिरधर, हरिराम जी।
रायसल जी के बाद गिरधर जी को खण्डेला का राजा बनाया गया तथा बाकी भाइयों को जागीरे दी गयी।
लालसिंह (लाडखानी)-घाटवा से लामयां तक की पट्टी।
तिरमल जी-नागौर -कासली पट्टी
भोजराज-उदयपुर
गिरधर-खण्डेला
परसराम-12 गाँवो के साथ बाय का ठिकाना
तेजसिंह-डीडवाना और झाड़ोद पट्टी के गाँव
हरिराम-मूंडरू के साथ अन्य पड़ोसी गाँव।

1.लाडखानी- रायसल जी के ज्येष्ठ पुत्र थे। बादशाह उन्हें लाडखान कहकर पुकारता था तो उनका नाम लाडखान पड़ गया फिर आगे जाकर लाडखानी शेखावत कहलाये।

युवावस्था में पहुचते ही लाडखान जी हुजूरी सेवको और साथियों की कुसंगति में भांग, अफीम, गांजा के सेवन में पड़ गए।नशे ने उन्हें आलसी बना दिया परिणामतः वो कुशल राजा न बन सके।कभी खण्डेला तो कभी रैवासा रहते हुए उन्होंने अपना आराम का समय व्यतीत किया।खण्डेला की बहियों से पता चलता है कि लाडखान बहुत ही धैर्य शील और धर्मवान व्यक्ति थे। साधु महात्माओ की सेवा की तरफ अधिक रुझान था। अपने समय के प्रसिद्ध सन्त दादू दयाल के भक्त थे।

लाडा फौजां लाडखान सिरदार सहट्टा।
कल्हण दे कल्याण दे भगी पांव ओहहट्टा।।

इससे सिद्ध होता है कि लाडखान और उनके पुत्र कल्याणदास बहुत ही वीर थे और अग्रिम पंक्ति में युद्ध करते थे। धोळी के सीमा युद्ध मे वो मानसिंह के खिलाफ लड़े थे। लाडखान जिस चीज के लिए प्रसिद्ध थे वह है उनका धैर्य और सहनशीलता व भाइयों के प्रति प्रेम।
एक किस्सा है उनके धैर्य का -
एक बार खण्डेला में भयंकर अकाल पड़ा ,जनता अन्न के दाने -दाने को तरस गयी। तब राजा रायसल जी थे लेकिन शासन प्रभार तब भोजराज जी देखा करते थे। तब रायसल जी सहमति से भोजराज ने जनता की सहायता हेतु अकाल राहत योजना के तहत एक तालाब खुदवाना शुरू किया जिसमें मजदूरों को भगर(अन्न) दिया जाता था। तब रोज बैलगाड़ियों पर अन्न के बोरे लादकर होद गाँव की तरफ लाते थे और मजदूरों को बांट देते थे।
कल्याणदास को लगा कि ऐसे तो पूरे राज दरबार के अन्न भंडार खाली हो जायेगे ,काका ऐसे क्यों कर रहे है। वह गुस्से में ही खण्डेला दुर्ग में पहुँच गया और भोजराज जी से बात ज्यादा बढ़ गयी। तब उसी क्रोध में भोजराज न कल्याणदास को मौत के घाट उतार दिया।
तभी तो कहा गया है-
"भोज भगर के कारणे ,मारयो भँवर कल्याण।"

अब कल्याणदास के बाकी भाई अपने काका भोजराज से बदला लेने पर उतारू हो गए। अपने बाकी सभी पुत्रो को लाडखान ने समझाया और शांत किया लेकिन जब नही माने तो  बोले- "अगर कल्याण तुम्हारा भाई था तो अब भोजराज भी तो मेरा भाई है। मैं अपना जीवन देकर भी भोजराज की रक्षा करूँगा।"
कल्याण ने अपने पितामह की आज्ञा की अवहेलना की तो उसे उसका नाम दण्ड मिल गया।पिता के ऐसे वचनों  ने बाकी भाइयों के क्रोध को शांत कर दिया और वे सभी लाडखान की आज्ञा का उल्लंघन नह कर सके।

लाडखान जी घाटवा के अलावा लोहागर्ल भी रहा करते थे जहां उन्होंने प्रतिहार कालीन वराह मन्दिर जीर्णोद्धार करवाया व गोपीनाथ जी अनन्य भक्त थे। अपने अंतिम समय मे वे वृन्दावन चले गए और वही उनकी इहलीला समाप्त हुई।
उनके पुत्र 11 थे जिनमें 5 निसन्तान थे बाकी 6 के वंशज आज भी लाडखानी कहलाते है
1.सुन्दरदास जी
2 आसकरण जी
3 जगरूप जी
4 केशरी सिंह जी
5 हरिसिंह जी
6 माधोदास जी
 और ठाकुरवास, सुदरासन, बरड़वा, भीमोद, दयालपुरा, नीमास, खूड़ी, चाचिवाद, लामयां, रोलाना, लुनियावास, दौलतपुरा आदि गाँवो में निवास करते है।
खाचरियावास इनका प्रमुख ठिकाना निकल जहाँ सम्मानीय "भैरुं सिंह जी शेखावत" भारत देश के उप-राष्ट्रपति हुए वो भी एक लाडखानी शेखावत थे
#क्रमशः-।

शनिवार, 20 नवंबर 2021

खण्डेला का इतिहास भाग-8

राजा रायसल और उनके ठिकाने



गतांक से आगे-
इसी समय तंवरावाटी में उपद्रव हुआ तो खुद रायसल शेखावत ने अपने पुत्र भोजराज जो कि छोटी उम्र में ही शासन प्रभार संभालने लग गए थे उनको उपद्रवियों के दमन हेतु भेज दिया और कहा कि- इस क्षेत्र को अपने राज्य में मिला लिया जाए।भोजराज ने सेना तैयार की और पाटन पर आक्रमण कर दिया।इस पाटण विजय के बाद रायसल ने पुत्र भोजराज को शाबाशी दी।

इसी समय की एक खबर तरेपना काळ की आती है जिसमे भोजराज खण्डेला का शासन प्रभार देख रहे थे उसी समय यहाँ की जनता को रोजगार देने हेतु होद गाँव मे तालाब खुदवाया गया जिसे "भोजसागर" नाम दिया गया। यह अकाल विक्रमी1653 में पड़ा था यह तालाब आज भी होद गाँव विद्यमान है। इसका विस्तृत वर्णन पीछे के किस्से(किस्सा-7) में उपलब्ध है।
दिल्ली सल्तनत के उत्तराधिकार के  प्रश्न पर भी रायसल शेखावत न जहाँगीर का साथ दिया जो कि आमेर के राजा मान सिंह को कतई पसन्द नही था क्योंकि मान सिंह खुशरो को गद्दी दिलाना चाहते थे। इसमे रायसल के स्वामिभक्त सरदार रामदास कछवाह की अग्रणी भूमिका रही जो रायसल के पास एक तनका (दो पैसे भर चांदी मिलाकर जो तांबे का सिक्का तैयार किया जाता है तनका कहलाता है) दैनिक वेतन पर नोकर था, रायसल की सिफारिश पर रामदास को बादशाह ने शाही सेवा में रखा।
जब जहाँगीर गद्दी पर बैठा तो उसने रायसल शेखावत को दक्षिण के अभियान पर भेज दिया और बुरहानपुर जो आज के मध्यप्रदेश और राजस्थान की सीमा पर पड़ता है वहां का सूबेदार नियुक्त कर दिया गया।
यहाँ 1672 विक्रमी में रायसल की स्वभाविक मृत्यु से इहलीला समाप्त हुई जिसमें अलग-अलग इतिहासकारों के अलग-अलग मत मिलते है।

केशरी सिंह समर से उक्त कथन की पुष्टि होती है-

"सुन्यो मरण रायसल को, जहाँगीर अवनीस।
करे गिरदरदास को, कुंजर धर बकसीस।।"

रायसल शेखावत ने चार परगने अपने दम पर जीत लिए थे -खण्डेला, उदयपुर, कासली और रैवासा। तंवरो की बत्तीसी के नाम से प्रसिद्ध 32 गाँव में से 9 गाँव और डीडवाना के पास झाड़ोद पट्टी के 12 गाँव रायसल के स्वर्गवास तक रायसल शेखावत के कब्जे में और जुड़ गए थे।
रायसल शेखावत के  राज्य का धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व भी खूब था जहां एक ओर उदयपुर में मालकेतु पर्वत, लोहागर्ल, किरोड़ी और सकराय माता तीर्थ थे वही रैवासा में हर्ष पर्वत शिव मंदिर और सिद्ध शक्ति पीठ  जीण माता स्थल थे।

कासली परगने के निचे 84 गाँव होने की वजह से यह "कासली की चौरासी" के नाम से प्रसिद्ध था। इसी भांति उदयपुर का परगना" पैंतालिसा" के नाम से प्रसिद्ध था क्योंकि 45 गाँव इसके नींचे थे।

राजा रायसल के इष्ट-
रायसल गोपीनाथ के उपासक थे,उन्होंने वृन्दावन में गोपीनाथ जी के मन्दिर का निर्माण करवाया। उक्त मन्दिर में भोग व पूजा निमित राजा रायसल ने अपने खण्डेला परगने के गाँव "सेवळी" की 13000 बीगा कृषि भूमि मन्दिर को अर्पण की थी। भूमि अर्पण के उक्त दस्तावेज खण्डेला बड़ा पाना की पट्टा बही में उल्लेखित है।
लोकमान्यता के अनुसार लोहागर्ल तीर्थ के पवित्र जलाशय सूरज कुंड के समीप गोपीनाथ मन्दिर भी रायसल शेखावत का बनाया हुआ है।

राजा रायसल ने चारण और कवियों को भी खूब दान दिया । चारण कवियों को सासण गाँव प्रदान किया।अलुनाथ कविया के वंशज किसना कविया को रायसल ने चेलासी गांव दिया और भगवंतदास ने चिड़ासरा गाँव दिया।

दियो चिडासरो भगवंतदास,आमेर भूप किय जस उजास।
दूसर चेलासी देसुदान, महिपाल रायसल कियो मान।।

इसी क्रम में गोपाल भांड को लोसल गाँव रायसल शेखावत ने दिया।
रायसल जी के कुल 12 पुत्र थे जिनमें 7 की वंशबेल बढ़ी। और राजा सबसे छोटे पुत्र गिरधरदास को राजा बनाया गया और बाकी भाइयों को जागिर दी गयी।
अगले अंक में हम रायसल शेखावत की अगली पीढ़ियों के इतिहास  और साथ ही साथ सीकर, उदयपुर, खेतड़ी का उत्थान पढेंगे।
#क्रमशः-

बुधवार, 3 नवंबर 2021

खण्डेला का इतिहास भाग-7

गुजरात का दूसरा अभियान और रायसल का कौशल






गतांक से आगे-
गुजरात विजय करके बादशाह ने अपने धाय भाई मिर्जा अजीज कोका जो आजम खां के नाम स्व प्रसिद्ध था उसको गुजरात का सूबेदार बना कर अहमदाबाद किले में बैठा दिया। बादशाह अपनी सेना के साथ फतेहपुर सीकरी लौट आया।छह महीने में ही दुबारा गुजरात में उपद्रव भड़क उठा।मिर्जा बन्धु जो बचकर भाग गए थे वापस विद्रोह का झंडा उठा लिया था।

इख़्तियारूमुल्क गुजराती और ईडर के नारायणदास ने अहमदाबाद किले को घेर लिया। अजीज कोका अंदर घिर गया।बादशाह को जब खबर मिली तो रात देखी न दिन ।अपने चुने हुए उमरावों के साथ ऊंट पर सवार होकर 45 दिन का सफर 9 दिन में कर डाला, रविवार को रवाना हुआ बादशाह मंगलवार तक अजमेर पहुँच गया और शुक्र की दोपहर तक जालोर तथा वहां घोड़े के व्यापारियों से घोड़े लेकर अपने साथियों में बांट दिए। अगले बुध को साबरमती के किनारे बादशाह पहुँच गया और सामने फिर से मोहम्मद हुसैन मिर्जा लड़ने को तैयार खड़ा था।
युद्ध की आवाज आने लगी और तलवार हवा में एक एक कर गर्दन काट रही थी। मोहम्मद हुसैन मिर्जा भी खूब लड़ा आखिर घायल होकर भागने लगा तो भगवंतदास कच्छवाह के इशारे पर पकड़ लिया गया और उसका सर काट कर फेंक दिया ।

पिछले सरणाल के युद्ध मे भोपत कछवाह शाहमदद की तलवार से मारा गया था इस बार उसे भी पकड़ लिया गया और रायसल शेखावत ने इसे पकड़ कर बादशाह को सौप दिया आखिर रायसल भी इसी की तलाश में था जिसने अपने कछवाह योद्धा को मौत की नींद सुला दी थी। बादशाह ने उसे युद्ध करने का मौका दिया और कुछ झटपट के बाद एक भाला उंसके आर -पार कर दिया।इस युद्ध मे शाही सेना का एक अप्रतिम योद्धा राघवदास कछवाह भी मारा गया।

रायसल शेखावत के पराक्रम को चारण कवि "खेत सिंह गाडण " ने लिखा है कि-

"रण मझ खाग बजतां रासे, घड़ा कंवारी बरीबा घाई।
सुजड़े बीज सिलाव श्र्वन्ति, मोहम्मद मीर तणा दल माईं।।
साथी छोड़ गयो सूजा सुत, तिसियो लोह तरनि रिणताल।
दामणी चमकी झमकिते दुजड़े, बणियो गुजर घड़ा विचाळ।।
कूरम गो परिगह मेल्ही कल्हिवा,घड़ा कहर घुमन्ती घाण।
ब्रह्मांड उरांखींवती बिजळ, अहमदाबाद तणे आराण।।

अर्थात-भीषण युद्ध मे संघर्षरत शाही सेना में सबसे आगे बढ़ कर रायसल बिजली से चमकती तलवारों की झड़ी के मध्य मिर्जा की सेना से भिड़ गया। राव सूजा का पुत्र रायसल अहमदाबाद के रणांगण में गुजरात की सेना रूपी कंवारी का पाणिग्रहण करने की त्वरा में अपने युद्धरत साथियो (बारातियों)को भी पीछे छोड़कर उमंग से अकेला आगे बढ़ता चला गया।
अगले अंक में शाही तख्त के उत्तराधिकार और उस समय की घटनाओ का जिक्र किया  जाएगा।
#क्रमशः-

रविवार, 31 अक्टूबर 2021

खण्डेला का इतिहास भाग-6

सरणाल का युद्ध और रायसल का फैसला






गतांक से आगे-
सरणाल का युद्ध-
बादशाह ने 4 जुलाई 1572 के दिन फतेहपुर सीकरी से गुजरात विजय के लिए प्रस्थान किया।गुजरात मे उन दिनों मिर्जा बन्धुओ का उपद्रव जोर पकड़ रहा था।
गुजरात पहुँचकर बादशाह ने पाटन विजय कर लिया और आमेर के कुंवर मान सिंह को आगे बढ़ाया,जिसने अहमदाबाद के किले पर अधिकार कर लिया।बादशाह ने उसी वक्त अलग-अलग सैनिक दस्ते को अलग-अलग जगह फैला दिया जहाँ उपद्रव हो रहा था। शिविर में तब बादशाह के पास केवल 40 विश्वस्त योद्धा थे जिसमें रायसल शेखावत,जयमल कच्छवाह, मथुरादास आदि सरदार थे।
तभी सूचना मिली कि इब्राहिम हुसैन मिर्जा अपनी सेना के साथ सरणाल के पास पड़ाव डाले हुए है। यह सुनते ही बादशाह ने उन 40 मारका योद्धाओ के साथ द्रुत गति से चल पड़ा। सूर्यास्त के समय वह कालिन्द्री नदी के तट तक पहुँच गया। नदी के दूसरी तरफ सरणाल का किला दिख रहा था।वहीं पर उसे एक ब्राह्मण द्वारा सूचना मिली कि इब्राहिम मिर्जा एक बड़ी सेना के साथ वहाँ मौजूद है।
बादशाह असमंजस में था कि क्या करे अब? तभी सौभाग्य से राजा भगवंतदास, कुंवर मान सिंह, भोपत भारमलोत, बूंदी का भोज हाड़ा, शाहकुली मरहम, सयैद खान, आदि उमराव भी आ गए और बादशाह के पास 200 सवारों का जमघट हो गया।
बूंदी के भोज हाड़ा ने निवेदन किया कि आक्रमण सुबह किया जाए ताकि बाकी सेना भी पहुंच जाएगी और विजय आसान होगी।
अब बादशाह अकबर भी केवल पूरे मुगल सल्तनत में एक मात्र निडर और साहसी था जितना तो उसके पहले  और बाद में आई पीढियां भी नही थी लेकिन फिर भी निर्णय सूझ-बूझ से लेना था।
तभी रायसल शेखावत ने कहा कि - अगर आक्रमण सुबह करते है तो बेशक सेना अपने पास आ जायेगी लेकिन मिर्जा की 1000 की सेना को आराम और युद्ध तैयारी का समय मिल जाएगा ,इसलिए क्यों न औचक आक्रमण किया जाए ताकि पूरे दिन की लूट-पाट से थकी सेना ज्यादा देर टिक नही पाएगी।
अकबर को रायसल शेखावत का प्रस्ताव अच्छा लगा और उसे विश्वास था कि अपने 200 योद्धा,मिर्जा के 1000 पर भारी पड़ेंगे। बादशाह ने आदेश दिया कि तुरन्त आक्रमण किया जाए और हरावल का नेतृत्व कुंवर मान सिंह को दिया गया व अग्रिम पंक्ति के योद्धाओ में भोपत कछवाह,भोज हाड़ा, भगवंतदास आदि थे और रायसल समेत 5 योद्धा बादशाह के बाएं पार्श्व में थे और 5 दाएं पार्श्व में थे।
मान सिंह आमेर भी बहुत प्रशिक्षित योद्धा थे जिन्होंने बहुत सारे युद्ध अभियान किये थे और उनके पास  तो अनुभव ही बहुत हो गया था फिर ये तो 1000 योद्धा थे उन्होंने प्रबल वेग से आक्रमण किया, तुमुल युद्ध शुरू हुआ।

उसी मुठभेड़ में भोपत कछवाह जो अग्रिम पंक्ति में था युद्ध करता हुआ मारा गया। मिर्जा के थके हुए लड़ाके बादशाह की सेना के सामने नही टिक सके और मिर्जा खुद भी जब कुछ नही सूझ रहा था तो रात के अंधेरे में भाग खड़ा हुआ और उसकी सेना छिन्न-भिन्न हो गयी।
सरणाल का युद्ध 23 दिसंबर 1572 को समाप्त हुआ। वहाँ से आगे बढ़कर बादशाह ने सूरत पर अधिकार किया।26 फरवरी 1573 को सूरत पर अधिकार हो गया।इस प्रकार पाटन, सरणाल तथा सूरत के युद्धों में रायसल शेखावत अग्रिम योद्धा रहे जिनकी बातें बादशाह अकबर को भी अच्छी लगती थी क्योंकि रायसल शेखावत भी नीति सम्मत बाते करते थे ,इसमे भले ही मंत्री देविदास जैसे विद्वान व्यक्ति की सलाह हो या उनका सिखाया नीति ज्ञान। इस युद्ध मे रायसल शेखावत ने युद्ध तो लड़ा ही ,साथ मे उनके द्वारा लिए फैसले ने बादशाह को और भी प्रभावित किया।
रायसल के इन तीनों युद्धों का वर्णन मआसिरुलमरा में किया गया है।
#क्रमशः-

मंगलवार, 26 अक्टूबर 2021

खण्डेला का इतिहास भाग-5

     रायसल की खण्डेला विजय और राजधानी




गतांक से आगे-
खण्डेला विजय के अनेक मतों में एक मत 
जोधपुर रियासत के फ़ौजचन्द भंडारी की ख्यात से पता चलता है और दूसरा मत केशरी सिंह समर महाकाव्य से चलता है पहले जोधपुर की इस प्रसिद्ध ख्यात में जो मत लिखा है वह देखते है-एक बार गुजरात का पठान व्यापारी बीजण दिल्ली जा रहा था।मार्ग में खण्डेला के निर्वाणो ने उसका माल सारा लूट लिया और उसके 50 आदमी मौत के घाट उतार दिए। पठान ने बादशाह के पास फरियाद की।बादशाह को भी निर्बानो का कोई तोड़ नजर नही आ रहा था।अकबर ने रायसल शेखावत को खण्डेला इजाफे में देकर उसे अपने अधिकार में लेने को कहा।
रायसल ने सेना इक्कठी करके खण्डेला पर आक्रमण कर दिया। युद्ध मे रायसल विजयी हुए।निर्वाण भागकर किरोड़ी लोहागर्ल की पहाड़ी में छुप गए जो आज के उदयपुर के आगे सीकर रॉड पर बाई तरफ गिरती है। पहाड़ो की ओट से कई दिनों तक घात लगाकर वे हमला करते रहे किंतु अपने मनोरथ में सफल न हो सके।तब वे आमेर शासन के पास गए और उनको नांगल भरड़ा नामक गाँव बसने को  दिया गया।

केशरी सिंह समर के अनुसार-खण्डेला के निर्बान बादशाही खजानो को लूट कर पहाड़ी में छिप जाते थे। एक बार उन्होंने बादशाह के खास चिराखान का सारा माल लूट लिया और उसके आदमियों को भी मार दिया व निडर होकर लाहौर तक के मार्गो पर लूट खसोट करने लगे।
उनकी उदण्डता का समाचार सुनकर बादशाह ने उन्हें दण्ड देने के लिए कई सिपहसालार भेजे जैसे रुस्तमख़ाँ, मीर मोहम्मद खान आदि लेकिन कोई भी सफल नही हो पाया।तब रायसल शेखावत ने यह बीड़ा उठाया।समय पाकर खण्डेला पर आक्रमण किया।वहां की निर्बान पीपा और जैता सज -धज कर मुकाबले पर आए।

जुद्ध करन पीपा जैत सूं।
जे जुरत एक अनेक सूं।।
दल धंसे पुर जहँ खण्डये।
चहुं और दुर्ग सूं मण्डये।।

इस प्रकार रायसल ने गढ़ घेर लिया और निर्वाण योद्धा युद्ध करते हुए मारे गए। इस प्रकार रायसल की विजय हुई। तत्पश्चात उदयपुर का परगना का भी जीत लिया गया।इससे पूर्व उदयपुर शाहकुली खान के कब्जे में था।निर्वाण शासको से अंतिम युद्ध "पचलंगी का युद्ध" था।
इस प्रकार भाई बंट की लाम्या जागिर के मालिक रायसल ने कई गांव अपने कौशल से जीत लिए थे जैसे खण्डेला, रैवासा, कासली, उदयपुर आदि।खण्डेलवाल देविदास अभी भी उनके मंत्री सलाहकार थे तथा मथुरादास बंगाली उनका मुंशी था। नारायणदास टकनेत फ़ौज बक्शी मुख्य सेनापति था, यह वही नारायणदास थे जो शेखाजी के पुत्र दुर्गा जी के प्रपौत्र थे जिन्होंने रायसल की सेना के लिए अनेक सफल युद्ध अभियान किये थे।
अमरसर परगने के बारहबस्ती क्षेत्र के गाँवो के पन्नी पठानों में अनेक पठान योद्धा सेना के अनेक पदों  पर थे।उनके कबीलो के रहने के लिए रायसल शेखावत ने उन्हें दायरा गाँव सौंप दिया था जिसमे आज भी पन्नी पठानों के वंशज रहते है।बाद में और भी कबीले पठानों के यहाँ आकर बस गए और आज के समय भी ये यही निवास करते है।चार परगनों के विजेता रायसल शेखावत  ने खण्डेला को अपनी राजधानी बनाया और वहीं अन्तः पुर में निवास करने लगे।

एक बार फिर शेखाजी के वंशज ने पूरे शेखावाटी पर अधिकार कर लिया और ताउम्र उसे सुचारू रूप से चलाया जितना राज्य प्रसार राव लूणकरण का नही हुआ उससे कई गुना ज्यादा रायसल ने अपने साहस और  पराक्रम से बना दिया, जिसमें मंत्री देविदास जैसे सूझ-बूझ वाले विद्वान हो उस राज्य को भला क्या समस्या हो सकती थी।
अगले भाग में रायसल शेखावत के अन्य युद्ध और उनके और अकबर के समय की कुछ घटनाओं का जिक्र किया जाएगा।
#क्रमशः-

रविवार, 24 अक्टूबर 2021

खण्डेला का इतिहास भाग-4

                           भटनेर का युद्ध




गतांक से आगे-
खैराबाद युद्ध के बाद रायसल का एक और युद्ध मे भाग लिया गया जिसे भटनेर का युद्ध कहा गया।
भटनेर बीकानेर भाग के श्रीगंगानगर जिले के हनुमानगढ़ कस्बे  का पुराना नाम है।भटनेर गढ़ 52 बीगा के फैलाव में मजबूत पकी हुई ईंटों से निर्मित है।मुगल काल मे हिसार के परगने के अन्तर्गत आता था।जनश्रुति अनुसार भाटी राजपूतो ने भटनेर गढ़ का निर्माण करवाया था और उनके नाम पर ही भटनेर कहलाया। फिर बीकानेर के शासक सूरत सिंह ने 1862 विक्रमी में जीतकर इसमे मंगलवार के दिन हनुमान जी के मंदिर का निर्माण करवाया और भटनेर का नाम हनुमान गढ़ कर दिया गया।

दिल्ली पर शासन विक्रमी1624 में सलीम शाह सूर कर रहा था, बीकानेर के शासक कल्याणमल के छोटे भाई ठाकुर सी ने अहमद चायल से भटनेर छीन लिया और 20 वर्ष तक उंसके कब्जे में रहा।एक बार अकबर का खजाना इसी भटनेर क्षेत्र में मछली गाँव मे लूट लिया गया,उसकी सूचना मिलते ही अकबर ने सेना को भेजा लेकिन कोई असर नही हुआ, उस वक्त फौजदार निजमुमुल्क था। कई दिनों के घेरे के बाद भी जब गढ़ नही जीता जा सका तो और सेनाएं भेजी गई जिसमे रायसल शेखावत की सैनिक टुकड़ी भी थी।तब ठाकुर सी ने अपने अन्तःपुर को बाहर भेज दिया और स्वयं 1000 मारका योद्धाओ के साथ गढ़ का द्वार खोलकर शाही सेना पर टूट पड़ा और लड़कर मारा गया।

रायसल जी के समय गोपाल भांड इस क्षेत्र का प्रसिद्ध कवि हो चुका था जिसके द्वारा रचित छंद से पता चलता है कि भटनेर आक्रमण के समय वह रायसल की सेना में मौजूद था।भटनेर विजय के बाद ही गोपाल को नोसल गाँव का उदकी पट्टा दिया गया।आज का लोसल कस्बा उस वक्त का नोसल कहलाता था।कर्नल टॉड के इतिहास में भी इसका नाम नोसल मिला है।
शिखर वंशोतप्ति में लिखा गया है कि-भटनेर विजय के बाद रायसल ने कई दिनों तक ब्राह्मणों को भूमिदान और बकसीस दी और लिखा कि- भटनेर से लाये गए दुर्ग द्वार के कपाट,खण्डेला दुर्ग के बाहरी द्वार (आज का -काला दरवाजा, बड़ा पाना गढ़,) पर चढ़ाये गए थे।
कर्नल टॉड के अनुसार खण्डेला और उदयपुर (उदयपुरवाटी) के परगने बादशाह द्वारा रायसल को इनायत कर दिए गए थे किंतु बिना युद्ध उन पर अधिकार करना मुश्किल था । वहां के निर्वाण शासक बहुत ही उदण्ड और लूट मार करने वाले लोग थे।
रायसल ने खण्डेला पर आक्रमण तो किया किंतु निर्बान बिना लड़े ही भाग खड़े हुए और पहाड़ो में छिप गए। फिर रायसल ने उन्हें उदयपुर तक खदेड़ दिया था लेकिन उनकी लुट-मार  की गतिविधियां फिर भी नही रुक रही थी।
फिर रायसल ने अपने पुत्र भोजराज को उदयपुर सौप दिया था जिसने निर्वाणो के विद्रोह को दबाया।
अंत मे निर्बान आमेर प्रसाशन में सहायता हेतु गए और उन्हें नांगल भरड़ा गाँव रहने को दिया गया।

शेखवाटी प्रकाश से यह भी पता चलता है कि जब रायसल ने निर्वाणो पर आक्रमण किया तो निर्बान शासक ने अपनी पुत्री का विवाह रायसल से किया।
खण्डेला पर अधिकार के बाद रायसल का प्रताप बढ़ता गया।
निर्वाण शासको से रायसल का युद्ध का वर्णन मिलता है वो आगे की कड़ी में आएगा।
#क्रमशः

गुरुवार, 21 अक्टूबर 2021

खण्डेला का इतिहास भाग-3

                         खैराबाद का युद्ध



गतांक से आगे-

रैवासा-कासली का अस्तित्व-


ग्यारवीं शताब्दी विक्रमबद के लगभग हर्ष पर्वत के चारो तरफ का प्रदेश अनन्त गोचर कहलाता था,उक्त प्रदेश तब साम्भर के चौहान राजाओ के सीधे नियंत्रण में था।वहां उनके भाई बांधवो की जागीरे थी। यह हर्ष के शिलालेख जो वि. स.1030 का उत्कीर्ण माना जाता  है से पता चलता है।विक्रमी1100 के पश्चात यह क्षेत्र चंदेल शासको के नियंत्रण में आया।वे साम्भर के चौहान के सामन्त थे।उस समय रैवासा व कासली "चन्देल परगना" के नाम से विख्यात थे।


चन्देल बुन्देलखण्ड पर शासन करने वाले प्रतापी चन्देलों के वंशज थे।चौहान पृथ्वी राज तृतीय के समय वि स 1243 के तीन शिलालेख रैवासा में प्राप्त हुए।जोधपुर के राव चुंडा  और मेवाड़ के महाराणा कुम्भा के आक्रमण का जिक्र भी मिलता है।


सम्राट अकबर ने रायसल शेखावत की जीवन खतरे में डाल की गई युद्ध विजय और वीरता से प्रभावित हो कासली और रैवासा दिया गया किंतु वह बादशाह की स्वीकृति मात्र थी।उन परगनों को जीतने के लिए रायसल जी को बाहुबल का प्रयोग करना पड़ा था। बड़वे और रानीमूंगों कि बहियों से पता चलता है कि वि स 1618 में रायसल से रैवासा कासली जीत लिए थे।अलग-अलग युद्ध मे 1040 चन्देल योद्धा मारे गए थे और रायसल जी के विश्वसनीय सिपाही भी शहीद हो गए थे, ऐसा शिवलाल जी की बही झुंझुनू से पता चलता है। कर्नल जेम्स टॉड ने इस विजय का समय वि स1618 में बताया है।


खैराबाद का युद्ध-


अबुल फजल लिखता है कि खैराबाद के युद्ध मे, 24 मई 1565 (वि स.1622)को अकबर ने अलिकुली खा और बहादुर खान पर चढ़ाई कर दी।बादशाही सेना खैराबाद तक बढ़ गई और मोर्चे जमाये। खैराबाद सिवाना के दुर्ग का नाम पड़ा जो अलाउदीन खिलजी ने बदल दिया था।उंसके आस-पास के क्षेत्र को खैराबाद कहते थे।

यहां भी रायसल शेखावत हरावल के पश्च कोण में अडिग स्तम्भ की तरह खड़ा था।शत्रु पक्ष को अंदर घुसने का तो दूर नजदीक तक नही आने दिया।

रायसल ने एक सिपहसालार को भाले के एक प्रहार से घोड़े से गिरा दिया और अगले ही पल तलवार के एक झटके में सर अलग कर दिया। लेकिन बहादुर खान बड़ा वीर योद्धा था उसने अपनी सेना को बहादुरी से लड़ने का पाठ सीखा कर लाया था।

उधर शाही सेना के अग्र भाग में खड़े सेनापति ने अलिकुली खान को धराशायी कर दिया जिससे उसके पीछे की सेना भाग खड़ी हुई।वहाँ शाही सेना को विजय होने का रास्ता बन्द हो गया।

हालांकि इस युद्ध मे बहादुर खान की तरफ से जो आक्रमण हुआ था उसमें शाही सेना के कुछ सिपाही भी मैदान छोड़कर भाग गए थे। लेकिन स्थिति काबू में थी।

लेकिन बहादुर खान का आक्रमण शाही सेना को भारी पड़ गया जब उसकी तरफ वाले विरोधी योद्धा जो शाही सेना से लड़ रहे थे वो प्रहार सामना झेल नही पाए।

इस तरफ से जो आक्रमण हुआ उसमे शाही सेना को दुर्भाग्यवश पराजय देखनी पड़ी फिर भी राजा टोडरमल, अलतमिश और रायसल प्रमुख थे युद्ध के मैदान में पहाड़ की तरह खड़े थे

युद्ध का विवरण सुनकर अकबर ने युद्ध से भागने वाले सिपाहियों को अपमानित किया और उनकी ड्योढ़ी बन्द कर दी किंतु वीरतापूर्ण लड़ने वालों को पारितोषिक भी दिया।

#क्रमशः-

रविवार, 17 अक्टूबर 2021

खण्डेला का इतिहास भाग-2

               राजा रायसल का पीतल का कच्छा




गतांक से आगे-
रायसल जी को यह सब करने की जरूरत तो नही थी लेकिन बादशाह अकबर का वरदहस्त पाना उस समय इसलिए जरूरी था क्योंकि उनकी 12 गाँवो की जागीर का प्रसार भी उसी तरह हो सकता था और अपने राज्य की जनता की सुख-सुविधाओं को पूरा करना राजा रायसल का कर्तव्य था। और वह धन अपने राज्य प्रसार से ही मिल सकता था और अनेक युद्ध अभियानों में विजय से मिल सकता था।

राजा रायसल को जब 1250 का मनसब और दरबारी की उपाधि मिल चुकी थी लूणकरण को यह अच्छा नही लगा कि उसका छोटा भाई उससे ज्यादा प्रसिद्धि पा गया और उसे खुद पर भी तरस आने लगा कि काश !देविदास को न निकाला होता। देविदास की सम्मति के बिना अब रायसल एक कदम भी न आगे बढ़ाते थे।सब जानकर बादशाह ने राजा रायसल को जनानी ड्योढ़ी का प्रभार सौंप दिया जो वाकई कठिन काम था।

जनानी ड्योढ़ी का प्रभार ग्रहण करने के बाद मंत्री देविदास ने रायसल के लिए नियम बना दिया कि धोती के नीचे पीतल के कच्छा पहनकर सरकारी काम पर जाया करे। तदनुसार रायसल जी कच्छा पहनकर डेरे से बाहर निकलते थे।कच्छे का ताला बन्दकर उसकी चाबी मंत्री देविदास खुद रख लेते थे।एक दिन स्नान करते समय धोती के नींचे पीतल के कच्छा देखकर बादशाह ने कारण पूछा?
तब रायसल जी ने सरलता से उत्तर दिया,इस पर बादशाह ने कौशल से देविदास  से इसकी चाबी लेने दूत को भेजा।किंतु चतुर चूड़ामणि देविदास ने किसी तरह बहाना बनाकर चाबी नही दी। इस पर बादशाह प्रसन्न हुए। वास्तव में जनानी ड्योढ़ी के कठिन काम को देखते हुए ही देविदास ने कच्छे की व्यवस्था की थी।इस प्रकार बादशाह की कृपा रायसल पर बढ़ती ही गयी और उनके मनसब में वृद्धि कर दी गयी और 10 और गाँवो के साथ खण्डेला, रैवासा व कासली के परगने का पट्टा दिया गया।इस प्रकार रायसल का उन गाँवो पर भी अधिकार हो गया जो कभी चंदेल और निर्वाण शासको के थे।
अवसर पाकर लूणकरण अपने भाई रायसल और देविदास से गले मिले।अपने समय में रायसल जी वीरता के लिए प्रसिद्ध थे उन्होंने  बहुत सारे युद्ध अभियान भी किये। ऐसा बताया जाता कि उन्होंने कुल 52 लड़ाइयों में विजय प्राप्त की।
#क्रमशः_

शुक्रवार, 15 अक्टूबर 2021

खण्डेला का इतिहास भाग-1

                 रिजक बड़ी या पौरुष?




गतांक से आगे-
अंतिम अध्याय में पढा कि राव सुजाजी की मृत्यु के बाद लूणकरण को अमरसर की गद्दी और बाकी भाइयों को अन्य गाँवो की जागीर मिली जो अमरसर की गद्दी के अधीन रहती थी। इसी समय रायसल को लाम्या गाँव सहित 12 गाँव दिए गए,जिसके बाद रायसल जी लाम्या आ गए और शांति पूर्वक रहने लगे। इनके नाम से शेखावतों की एक शाखा रायसलोत का उद्भव हुआ जो कालान्तर में शेखावाटी के अधिकांश हिस्से पर राज किया और तीन बड़े परगनों में बंटे जो उदयपुर, खण्डेला, सीकर और खेतड़ी रहे।
उधर राव लूणकरण अपने अमरसर राज्य को चला रहे थे, इसी दौरान लूणकरण का एक मंत्री था जिसका नाम था - देवीदास।
देविदास अपने मालिक सुजाजी के समय से ही राजभक्त व्यक्ति था और अपनी नीति पर टिका हुआ था। उसे रायसल में एक भावी राजा दिखता था शायद रायसल जी की अपने पिता के साथ नजदीकियां या किसी युद्ध का वर्णन जैसी बातें वो अक्सर किया करते थे।इधर कुछ मंत्रियों और उपमंत्रियो ने लूणकरण को देविदास के खिलाफ भड़का दिया।
एक दिन स्वामी और सेवक में बहस छिड़ गई। लूणकरण ने पूछा-आपकी राय में रिज्क बड़ी या नर? रिज्क बोले तो- रियासत और नर बोले तो आदमी। बुद्धिमान देविदास ने उत्तर दिया- निसंदेह महाराज नर ही बड़ा होता है रिज्क का क्या बड़ा? वो तो कोई साहसी और पराक्रमी आदमी भी बना सकता है अपने परमार्थ से।
राव लूणकरण अपने रियासत को श्रेष्ठ मानते थे क्योंकि इतने बड़े राज्य के राजा जो थे। आगे जाकर लूणकरण ने मंत्री देविदास को निकाल दिया और ताना दिया कि- जाओ, मेरा भाई रायसल बड़ा साहसी और पराक्रमी है उंसके साथ रहो और उसके 12 गाँवो को राज्य में बदलो।

मंत्री देविदास बड़ा बुद्धिमान था उसी समय विनम्रतापूर्वक हाथ जोड़कर लाम्या में रायसल जी के पास आ गए और सारा हाल कह सुनाया। अब देविदास और रायसल जी लाम्या मे आराम से रहने लगे और योजना बनाने लगे कि कैसे इसे एक राज्य में बदला जाए।?
देविदास की सलाह से रायसल जी ने रैवासा के चन्देल शासक "रासोजी" से घोड़े मांगे और रासो ने 150 घोड़े रायसल को राजी खुशी दे दिए।
कुछ इतिहासकार मानते है कि सुजाजी ने अमरसर पर आक्रमण के समय बहुत सारा धन जमीदोंज कर दिया था जिसका पता केवल सुजाजी और देविदास को ही था। सुजाजी की मृत्यु के बाद केवल देविदास को ही उसका पता था। देविदास ने वह धन निकाल कर रायसल को दिया और उससे रैवासा के शासक से 150 घोड़े खरीदे।
"रायसल जससरोज" के अनुसार यह जानकारी मिलती है-

"देइदास के पास द्रव,सूजा तणो समस्त।
लामयां कढ़ी रु लेग्यो, हुयो रायसल हस्त।।"

 इसके बाद देवीदास रायसल जी को लेकर दिल्ली पहुँचे और वहा उपयुक्त स्थान देखकर रहने लगे। वे बस मौके की तलाश में ही थे।
उसी समय अफगान पठानों का एक दल, दिल्ली पर आक्रमण करने को बढ़ा,जिसमे उनका सिपहसालार कतलू खान था। दिल्ली से शाही फौज भेजी गई और देविदास ने रायसल को दैनिक वेतन भोगी के तौर पर अपने 150 घुड़सवारों को लेकर चले थे। 

इसके सम्बन्ध में कर्नल टॉड का कथन है कि-इस लड़ाई में काबुल सेनापति  ने सीधा शाही सेना के वजीर पर हमला किया और रायसल जी ने यह देखकर घोड़ा बीच मे से दौड़ाया और वजीर को बचाकर एक तरफ ले गए व अफगान सिपहसालार का सिर धड़ से अलग कर दिया। यह देख अफगान सेना भाग खड़ी हुई जब उनका सिपहसालार मार दिया गया।
कुछ इतिहासकार और रायसलोत गढ़ के कागजों और दस्तावेजों के अनुसार, इस वजीर की जगह शहजादा सलीम का होना भी मानते है जिसने अकबर को सारा हाल कह सुनाया था जिसके बाद शहजादे की रक्षा के कारण बादशाह ने रायसल जी को स्थायी  पदस्थ किया था।

शाही सेना विजय होकर जब दिल्ली लौटी तो सेनापति ने सारा हाल सुनाया और बताया कि वह योद्धा दैनिक वेतनभोगी के तौर पर शामिल था तो उसे पहचान नही सकते ,लेकिन जब उसने अफगान सेनापति को मारा तो एक पंक्ति बोली थी वह मुझे याद है-
"खदड़ा खड़ा रह , देख राजपूत के हाथ"

अब यह सुनकर अकबर सोच में पड़ गया कि ऐसा कोई वीर योद्धा है तो उसे हमारे स्थायी दल में शामिल होना चाइये बल्कि मंत्री सलाहकार बने तो भी कोई अतिशयोक्ति नही। उन्होंने उसे पहचान करने की योजना बनाई और एक भोज का आयोजन किया और आदेश दिया कि जो जिस पोशाक में था वह उसी में सजकर खाना खाने आये। देविदास आकर रायसल जी से बोले- आज आपकी तलाश हो रही है महाराज! आप भी पधारिये।

फ़ौज के सभी जवान एक -एक कर बादशाह और सेनापति के सामने से गुजरने लगे तो। किंतु शेखावत कुलसूर्य रायसल जी जैसे ही सामने आए तो सेनापति बोले- यही सरदार है।
बादशाह ने रायसल को बुलाया और उनसे पूछा कि युद्ध पंक्ति (रणघोष) क्या थी?
जैसे ही रायसल ने बताया तो बादशाह को यकीन हो गया।
लूणकरण को अब जलन हो रही थी कि यह तो अब यहाँ प्रसिद्ध हो गया।
इसी समय कर्नल टॉड ने लिखा है कि "उसी समय दरवार में राव लूणकरण जी भी थे जो रायसल के भाई थे और दरबार मे पहले से उपस्थित थे उन्होंने रायसल का तिरस्कार किया और बोले- मेरी आज्ञा बिना यह यहाँ क्यों आया है?"
किंतु वीर रायसल पर भाग्य श्री प्रसन्न हो चुकी थी। बादशाह ने रायसल जी को स्थायी पद दिया और "दरबारी " की उपाधि दी व साथ ही साथ 1250 का मनसब दिया।

इस प्रकार मंत्री देविदास ने अपनी कथनी को सार्थक कर दिखाया।
#क्रमशः-

बुधवार, 13 अक्टूबर 2021

हल्दीघाटी में शेखावत सरदार भाग-11

             हल्दीघाटी में शेखावत लूणकरण

                 (शेखवाटी इतिहास भाग-11)


गतांक से आगे-
सुजाजी की बसई में मृत्यु होने के बाद उनके पुत्र लूणकरण अमरसर की गद्दी पर बैठे।सुजाजी के अन्य पुत्रो में गोपाल जी को करड़, जवानीपुरा,नवरंगपुरा आदि गाँवो की ज़मीदारी मिली। चांदा जी को अलवर बानसूर बस्सी के पास कैथल आदि गांव व सबसे छोटे पुत्र रायसल जी को 12 गाँवो सहित लाम्या गाँव मिला ।
अब सभी भाई अपनी अपनी जागीर की देख रेख करते हुए उन्ही गावों में निवासरत थे।

इस समय की सिर्फ एक ही मुख्य घटना थी जो कि हल्दीघाटी के युद्ध के रूप में थी।राणा प्रताप के विरुद्ध जब दूसरा अभियान आमेर राजा मान सिंह के नेतृत्व में भेजा गया था।
राणा ने 21 जून 1576 को हल्दीघाटी के पास खमनोर गाँव मे शाही सेना का डटकर मुकाबला किया।इस समय लूणकरण छोटे सेनापति की हैसियत से मान सिंह के नेतृत्व में हल्दीघाटी के युद्ध मे खड़े थे। मान सिंह की व्यूह रचना में बाई तरफ गाजी खान, राव लूणकरण आदि हरावल में थे।प्रताप का बाई तरफ का लश्कर बादशाही सेना के दायीं तरफ के लश्कर पर टूट पड़ा।लूणकरण दायीं तरफ घुसे और बाकी शेखसादे भाग गए।

हल्दीघाटी युद्ध मे बादशाही सेना से लड़ने वाले अब्दुल कादिर बदायुनी "मुंतखबूतवारिख"में लिखता है- राणा कीका(भील अपनी भाषा में राणा को कीका के उपनाम से पुकारते थे-प्रताप)ने दर्रे के पीछे से सेना के दो भाग कर रखे थे। एक भाग का सेनापति हाकिम खान सूरी अफगान कर रहा था, पहाड़ो से निकलकर हमारी हरावल पर आक्रमण किया।भूमि ऊंची -नीची ,टेड़ी मेड़ी होने के कारण हरावल में हड़बड़ी मच गई,जिससे हमारी हार हो गयी।वरना दुश्मन का सर धड़ से अलग करने में हम कामयाब थे और रहे भी। उसी दौरान चेतक भी घायल अवस्था मे आ गया जिससे उनका मुकुट झाला बिदा को देकर उन्हें किसी सुरक्षित स्थान पर भेजा गया ताकि विद्रोह बना रहे आगे भी। इसमें राणा के 1500 के लगभग सैनिक हताहत हुए और मुगल सेना में 500-600 बताई जाती है ऐसा इसलिए भी कहा जाता है क्योंकि मानसिंह की सेना राणा के सैनिक बल से चार गुना थी। फिर भी मुगलो के दो मुख्य सेनापतियो को मौत के घाट उतार दिया गया था। रॉव लूणकरण ने अपनी सेना को संगठित करके एक झुंड पर आक्रमण करने की ओर ले गए जिसमे वीरतापूर्वक युद्ध किया लेकिन लूणकरण के पठान सरदार काफी मारे गए।

राव लूणकरण डुंगरपुर अभियान में भी बीरबल के साथ थे और गुजरात के दूसरे अभियान में भी, इसी गुजरात अभियान में राव लूणकरण काम आए।यह अभियान 15 जनवरी 1584 को हुआ। अपनी मृत्यु के पूर्व लूणकरण अकबर के दो हजारी मनसब थे।
इनके बाद इनके पुत्र मनोहर को अमरसर की गद्दी पर बैठाया गया जिन्होंने  मिर्जा मनोहर के नाम से ख्याति प्राप्त की।
कहा जाता है कि बादशाह अकबर अजमेर शरीफ की जियारत के लिए आये तो उन्होंने एक खण्डहर गाँव देखा जिसका नाम मुलाथन था ,बादशाह इस गाँव को वापस बसाना चाहते थे अतः इस गाँव का शिलान्यास अकबर ने खुद किया और मनोहर के नाम से इसका नाम मूल मनोहरपुर रखा जो वर्तमान का मनोहरपुर है जो आज भी विद्यमान है जो शाहपुरा(सीकर) के पास है।
शेखावाटी प्रसिद्ध "धोळी का युद्ध"भी आमेर से हुआ जो कि सीमा विवाद को लेकर था जिसमे मान सिंह की एक छोटी टुकड़ी आयी जिसे राव मनोहर ने आमेर तक खदेड़ दिया था जिसके बाद सुलहनामा हुआ और ढूंढाड़ व शेखावाटी की सीमा का निर्धारण फिर से हुआ।
अमरसर और आस पास के गाँवो में लूणकरण के वंशज राज करते रहे लेकिन खण्डेला और आस पास में रायसल के राज रहा जो कालान्तर में उसी के वंशजो के पास रहा। अब एक और शाखा जो रायसलोत कहलाई उसका वर्णन "खण्डेला का इतिहास" के नाम से उद्धृत है जो आगे के भागों में होगा।
#क्रमशः

सोमवार, 11 अक्टूबर 2021

शेखावाटी पर हुमायूं का आक्रमण,भाग-10

                  शेखावाटी का इतिहास भाग-10




गतांक से आगे-
रायमल जी के बाद उनके पुत्र सुजाजी अमरसर की गद्दी पर वि. स.1594 में बैठे।इसी समय काकड़बेग का आक्रमण शेखा गढ़ पर हुआ। रायमल जी की मौत का समाचार जैसे ही बादशाह हुमायूं के पास पहुँचा तो हुमायूं ने अलवर के सूबेदार काकड़बेग को शेखावाटी प्रदेश अपने कब्जे में करने का फरमान दिया।काकड़बेग आदेश पाकर अलवर से निकल पड़ा शेखावाटी जीतने।

यह समाचार जब सुजाजी को मिला तो उन्होंने अपने सभी भाई बन्धुओ का इक्कठा किया तथा मीणाओ को भी बुलाया और कहा कि मुकाबला अमरसर से दूर जाकर करेंगे वरना पूरा गांव तबाह हो जाएगा और भारी नुकसान होगा।
यह सोचकर शहर से डेढ़ कोस दूर चिन्तालाई पहाड़ के पास पहुँच गए।पहाड़ की ओट से युद्ध करना निश्चित हुआ।पहाड़ी की तलहटी में मीणों को घोड़े संभलाकर कुछ विशेष 2 व्यक्ति पहाड़ पर चढ़कर देखने लगे कि सेना कितनी है और कितने भाग में बांटा गया है? उन्होंने देखा कि फौजें दो भाग में आ रही है और एक भाग वर्तमान मनोहरपुर की तरफ से आ रहा है।

इसी दौरान मीणों ने सोचा कि शेखावत अपने को दुख देते है अपने घोड़ो को लेकर निकल जाओ और वे निकल गए। इतने में शाही फ़ौज आ धमकी और शेखावतों को बिना घोड़ों के युद्ध करना पड़ा। रायमल के अन्य पुत्र सहसमल जी समेत 400 योद्धा इस युद्ध मे काम आए। सुजाजी अन्य आदमियों के साथ मुश्किल से बचे। मीणा विद्रोही हो गए थे और शक्ति टूट गयी थी।
सुजाजी को दूसरी जगह शरण लेनी पड़ी और काकड़बेग का शेखावाटी परअधिकार हो गया।
सुजाजी ,जगमाल जी अलवर जिले में आश्रय लेकर रह रहे थे,इन्ही दिनों कोहरी की पहाड़ी जो आज के बानसूर के पास है पर भीखन खा डाकू अपने 750 डाकुओं के साथ रहता था और अजमेर से दिल्ली जाने वाली सेना को लूट लेता था। बादशाह ने हाजी खान के नेतृत्व में सेना भेजी लेकिन भीखन खा को पकड़ने में असफल रही। जब सुजाजी ने लाडा नामक गुजरी को बिलखते देखा तो पता चला कि डाकू उसकी युवा पुत्री को उठा ले गए। सुजाजी ने उससे कहा कि मैं पूरी कोशिश करूंगा तेरी बेटी को वापस लाने की।

एक दिन गुजरी के 18 पुत्रों और साथियों को लेकर सुजाजी ने खोहरी की पहाड़ी पर चढ़ाई कर दी और भीखन खा डाकू को छापामार युद्ध प्रणाली से मार डाला और उनके घरों को आग लगा दी जिसे देखकर अन्य लुटेरे भाग गए।जब यह बात हाजी खाँ को पता लगी तो हाजी खां ने यह बात बादशाह सलामत हुमायु तक पहुँचाई। फिर बादशाह ने सुजाजी को दिल्ली बुलाया और सुजाजी को वापस 42 गाँव दिए व जगमाल जी को 12 गाँव दिए और स्वतंत्र राजा बनाया। सुजाजी ने बसई गाँव बसाया जिसमे में शिखरबद्ध मन्दिर बनवाये और तालाब निर्माण किया। सुजाजी ने वहाँ पहले से काबिज चौहानो की कमजोरी का फायदा उठाकर सेना एकत्रित की जो चौहान शासक से परेशान थी और फिर अमरसर वापस काकड़बेग से लिया जिसकी सामान्य टुकड़ी शासन कर रही थी।। बसई में वि. स. 1606  में सुजाजी का देहांत हुआ । सुजाजी की छतरी आज भी बसई में बनी हुई है।
सुजाजी के बाद अमरसर की गद्दी पर आसीन हुए राव लूणकरण जी और रायसल जी व बाकी भाइयों को मिली जागिर के कुछ गाँव।
अगले भाग में लूणकरण का शासन काल आएगा फिर एक महान योद्धा जिसने केवल 12 गाँवो की जागीर को एक बड़े राज्य में बदला उस महान शासक का कालक्रम पढेंगे।
#क्रमशः

रविवार, 10 अक्टूबर 2021

खानवा के युद्ध मे शेखावत सरदार,भाग9

             शेखावाटी का इतिहास भाग-9


#खानवा_का_युद्ध_1527

गतांक से आगे-
रायमल जी सबसे छोटे और बारवे पुत्र थे। राव शेखाजी के बाद अमरसर की गद्दी रायमल जी को दी गयी जिसमे सबसे बड़ा बलिदान दुर्गा जी का था।रायमल जी राजा बनते ही घोषणा कर दिए कि गौड़ों से प्रतिशोध किया जाएगा। उंसके साथ ही आमेर के राजा चन्द्रसेन जी ने भी भरपूर सहयोग का वादा किया।

जब इस घोषणा के समाचार गौड़ों के राव रिड़मल जी को मिले तो उसके परिणामस्वरूप होने वाले रक्तपात का अंदाजा उन्होंने लगाया।और समस्त गौड़ जाति के विनाश को देखते हुए इसे रोकने की कोशिश करने लगे।उन्होंने गौड़ों के सामन्तों और मन्त्रियो से सलाह ली ।फिर अमरसर रायमल जी के पास सन्धि प्रस्ताव भेज दिया गया। अपनी पुत्री का विवाह रिड़मल जी ने रायमल जी के साथ करने और साथ ही 51 गाँव दहेज में देने का वादा किया ताकि इस चली आ रही वैर भाव को खत्म किया जाए।

आमेर के राजा चन्दरसेन जी से सलाह मशविरा भी गौड़ों द्वारा किया गया तथा आमेर के कहने पर रायमल जी इस सन्धि प्रस्ताव को राजी हुए। इस प्रकार शेखावत व गौड़ों के मध्य सम्बन्ध वापस बन पाए।

उस समय दिल्ली का बादशाह बाबर का मुकाबला राणा सांगा से चल रहा था और खानवा में  सन 1527 में  यह जंग लड़ी गयी जिसमे पाती-पेरवन प्रथा का भी पालन किया गया।(पाती-पेरवन- इसमे एक मुख्य राजा अन्य राजाओ को युद्ध के लिए आमंत्रित करता था जिससे कि शत्रु को एक साथ मिलकर हराया जा सके।)
उस समय राणा सांगा का पूरे राजपुताना में कोई सानी नही था लेकिन फिर भी मुगलिया ताकत का सामना करना था तो सभी राजाओ को बुलाया गया। इस युद्ध मे शेखावत सिरमौर राव रायमल जी ने राणा सांगा की तरफ से मुगल सेना से युद्ध किया।  शेखावत सरदारों  ने वीरता से युद्ध किया और कई शेखावत योद्धा इस युद्ध मे हताहत हुए और  कहा जाता है कि इस युद्ध में बाबर की सेना तक भाग खड़ी हुई थी जिसे उंसके पुत्र ने वापस घेरकर लाया था जो कि अपने पिता बाबर की सहायता के लिये कुछ अफगान कबीलों को लेकर आ रहा था और खुद बाबर द्वारा इस युद्ध अपने सैनिकों को अनेक तरह के प्रलोभन दिए गए थे।अपने भारत देश की रक्षार्थ क्षत्रिय आंधी की तरह युद्ध करते हुए शौर्य प्रकट कर रहे थे जो कि उनको अपनी अंतिम लड़ाई घाटवा में नही मिल पाया था लेकिन फिर भी मुगल तोपों के भरोसे युद्ध को जीत गए थे जो पहली बार बाबर द्वारा फारस से लाई गयी थी जिसे #तुलुगमा_युद्घ_पद्धति भी कहते है।

इस युद्ध के बाद भी रायमल जी ने अपने राज्य को सुचारू रूप से चलाया और कई युद्ध मे भाग लिया। एक बार जोधपुर की सेना ने गौड़ों पर चढ़ाई की तो उनकी सहायता के लिए भी गए।इसी दौरान रायमल जी ने साम्भर पर भी अधिकार कर लिया था व रायमल जी ने अपने अंतिम समय तक कुल 555 गाँवो को अपनी राज्य शक्ति में मिला चुके थे।इस रणबांकुरे का निधन सन 1537 (वि. स.1594)में हो गया।

रायमल जी के बाद राजा बने- इनके पुत्र सुजाजी जो 1537 में अमरसर की गद्दी पर बैठे।
सुजाजी के पांच पुत्र थे-
लूणकरण
गोपाल जी
भैरू जी
चांदा जी
और रायसल जी।
राजा लूणकरण जी हुए और बाकी भाइयों को जागिर दी गयी।
इसी समय रायसल जी को खण्डेला का परगना दिया गया जहां से शेखावत वंश की उपशाखा रायसलोत का उदभव हुआ।
और राजा रायसल दरबारी बड़े योद्धा हुए जिन्होंने खण्डेला शहर बसाया और कई सालों तक इस क्षेत्र में शेखाजी की तरह इनके वंशजो ने शासन किया। 

इसके आगे खण्डेला राज प्रशासन का राज्य विवरण आएगा।
#क्रमशः-

शनिवार, 9 अक्टूबर 2021

शेखावाटी का इतिहास भाग-8

                   शेखावतों के भीष्म पितामह





गतांक से आगे-

अंतिम भाग में हमने कहा था कि शेखाजी की इहलीला समाप्त होने के बाद, शासन का जिम्मा सबसे छोटे पुत्र रायमल को सौंप दिया गया था। शेखावत वंश में अब देखने वाली बात यह रहती है कि यहाँ केवल बड़े पुत्र को राजा नही बनाया जाता ,केवल इसलिए कि वह बड़ा है यहाँ अन्य परिस्थितियों और योग्यताओं को जान समझकर भी राजा किसी योग्य युवराज को बनाया जाता रहा है।
आमेर प्रसाशन ने भी यह कई बार किया है और कुछ बार तो उत्तराधिकार युद्ध का भी सामना करना पड़ा है।

रायमल जी के राजा बनने के पीछे भी एक किस्सा है जो दुर्गा जी के बलिदान और अपने पितृभक्त होने का प्रमाण देता है।

शेखाजी का पांचवा विवाह चौबारा के चौहान वंश में हुआ।आज के अलवर का पश्चिम भाग मेवात कहलाता था, उसमे चौहान वंश के बहुत से गाँव थे। वे खुद को राठ कहते थे और उनके नाम पे वह पूरा "राठ क्षेत्र"कहलाता था। जनश्रुति है कि एक बार चौबारा के शासक स्योभरमजी की पुत्री ने शेखाजी की वीरता और कीर्ति पर मन्त्र मुग्ध होकर उनके साथ विवाह की हठ पकड़ ली।किंतु उंसके पिता स्योभरमजी को यह रिश्ता मंजूर नही था क्योंकि उन्होंने चार विवाह पहले से कर लिए थे और उन रानियों से उनके कई पुत्र थे।जिनमें से दुर्गा जी पहले से राजकुमार के पद पर सुशोभित थे और राजा बनने योग्य  भी थे। अब यह सब सुनकर राव शेखाजी भी असमंजस में थे क्या करे या क्या न करे?
चौहान राजकुमारी के हठ और उसके पिता शेखाजी के असमंजस को देखते हुए, पितृभक्त दुर्गाजी खुद चौबारा गए और स्योभरमजी से राजकुमारी की इच्छा अनुसार शेखाजी के साथ उसका विवाह कर देने का अनुरोध किया। 
शेखावतों का भीष्म इसलिए कहा गया कि महाभारत काल मे राजकुमार देवव्रत ऐसी प्रतिज्ञा करता है जब राजकुमारी सत्यवती से उनके पिता, राजा शांतनु विवाह करना चाहते है लेकिन सत्यवती के पिता चाहते है कि जब सत्यवती को पुत्र हो तो अगला राजा वही बने। तब वो भीष्म से प्रतिज्ञा करवाते है और भीष्म एक पल में दो कठोर प्रतिज्ञा करता है । एक तो  कि वह राजा नही बनेगा और दूसरा कि आजीवन विवाह नही करेगा ताकि आने वाली पीढियां उस पद का दावा नही कर सके। आज के काल जो कि शेखाजी का समय था उसमें वैसी एक प्रतिज्ञा करना भी बहुत बड़ी चीज थी। अतः "शेखावतों का भीष्म "भी दुर्गा जी को कह सकते है । इस तरह का एक किस्सा मेवाड़ प्रशासन में भी होता है।

अब चौहान सामन्तों को समस्या ये थी कि अगर ये शादी हो गई तो उनके भांजे को राजा बनने का मौका नही मिलेगा और सारे चौहान चाहते थे कि शेखावत राज्य का राजा उनका भांजा ही बने इसलिए उन्होंने दुर्गाजी के सामने अपनी शर्त रख दी।सबसे बड़ी बात दुर्गाजी ने सहर्ष उनकी शर्त स्वीकार भी कर ली।
और दुर्गाजी से प्रतिज्ञा करवाई कि-अगर इस रानी से शेखाजी को कोई पुत्र होगा तो वे उसके लिए अपनी राजगद्दी त्याग देंगे। पितृभक्त दुर्गाजी के असाधारण त्याग से शेखाजी का विवाह चौबारा के चौहान वंश में हुआ। उसी रानी की कोख से राजा रायमल का जन्म हुआ।
इस वाकये के बाद दुर्गाजी को "शेखावतों का भीष्म पितामह" भी कहा गया,जिन्होंने अपने पिता  और राजकुमारी की हठ के आगे राजगद्दी तक का त्याग कर दिया और दुर्गा जी के वंशज "टकणेत"शेखावत कहलाते है जो कि दुर्गाजी की मां टांक रानी के नाम से जुड़ा है।और नगरगढ  "गढ़- टकणेत" इनके नाम से प्रसिद्ध है और इनके अधिकार में रहा व यह गढ़ आज भी शेखवाटी की शान है। टकणेत शेखावतों के  ठिकाने आज भी कायम है- जैसे रेटा,पलसाना, गोवटी, तिहावली,खंडेलसर आदि बहुत  से गाँव सीकर, झुंझुनू और चुरू में बसे है।
#क्रमशः

शुक्रवार, 8 अक्टूबर 2021

शेखावाटी का इतिहास भाग -7

                शेखाजी का अंतिम युद्ध



                गौड़ बुलावे घाटवे, चढ़ आवो शेखा।
           लश्कर थारा मारना, देखण का अभिलेखा।।

इस प्रकार कछावा और गौड़ों के बीच ये रक्तरंजित संघर्ष पाँच वर्षों तक चलता रहा।ऐसा प्रसिद्ध है कि शेखाजी और गौड़ों के मध्य नो लड़ाईयां हुई।जिनमे हर बार गौड़ों को मुंह की खानी पड़ी।जातीय अपमान से क्षुब्ध गौड़ अंतिम बार घाटवा नामक स्थान पर इक्कठे हुए।उन्होंने सयुंक्त गौड़ शक्ति को  शेखाजी के साथ लड़ने हेतु तैयार किया, गौड़ों के पाटवी मारोठ के राव रिड़मल जी के नेतृत्व में युद्ध का आह्वान किया।

इस युद्ध मे भाग लेने गौड़वाटी के प्रत्येक गांव व घर से योद्धा पहुँचे।प्रथम मुठभेड़ के लिए घाटवा के पास खूटियां तालाब को चुना।खूंटियां तालाब घाटवा के पास तीन मील  की दूरी पे खारडे की भूमि थी।घाटवा में एकत्रित गौड़ अपने दमामी को अमरसर भेजकर शेखाजी को रण निमंत्रण दिया।

रण निमंत्रण पाकर भी चुप रहने वाला कायर होता है, शेखा ने सेना तैयार कर ली और चढ़ाई कर दी।शेखाजी ने एक भूल यह भी की, कि अपनी सीमाओं में फैली सेना को एकत्रित किया बिना ही ,जितनी सेना थी उसी से युद्ध लड़ने निकल पड़े।अपने सबसे छोटे पुत्र रायमल को सेना लेकर पीछे से आने को कहा।घाटवा से कुछ उत्तर की ओर गौड़ सेना के एक दल ने शेखाजी का रास्ता रोका और साधारण झड़प के बाद दल भाग खड़ा हुआ। शायद वे शेखाजी की सेना की टोह लेने आये थे।उन्हें लगा कि मामूली सेना के साथ आये शेखाजी अब क्या करेंगे।खूंटियां तालाब के पास पहुचकर गौड़ सरदारों  ने युद्ध आरम्भ कर दिया।उस दिन गौड़ और शेखावतो की सेना जमकर लड़ी आखिर छोटे -छोटे युद्ध बहुत हो चुके थे और दोनों तरफ से मारने मरने का संकल्प था।

मारोठ के राव रिड़मल जी ने शेखा पर तीरों की बारिश कर दी और रिड़मल जी को नायक देख शेखाजी ने भाले के एक  ही वार से रिड़मल जी के घोड़े को ऊपर पहुचा दिया और रिड़मल जी पैदल हो गए।शेखाजी की आंखों के सामने उनके बड़े पुत्र दुर्गा जी अपने पिता के सामने, कोलराज के पुत्र मूलराज के हाथों मारे गए। यह वही कोलराज का पुत्र था जिस कोलराज को पिछली लड़ाई में शेखाजी ने मौत के घाट उतार दिया था, मूलराज ने सम्भवतः उसी का बदला लिया था।

इस पर शेखाजी ने अत्यंत क्रोधित होकर रिड़मल से लड़ना छोड़ मूलराज की तरफ लपके और एक ही भाले को मूलराज के शरीर के आर-पार कर दिया। गौड़ योद्धाओ का भी साहस कम नही था आखिर वो भी सारी कसर इसी युद्ध से निकालने के लिए आये थे।ऐसा कहा जाता है कि गौड़ों की नियोजित योजना थी कि, शेखाजी की सेना को खारड़ा की लड़ाई में थका कर वे घाटवा गाँव मे जा घुसे और वहाँ मोर्चा बांध कर लड़े।गौड़ों की चाल सफल नही हुई क्योंकि शेखाजी के एक पुत्र पूरण जी सेना लेकर घाटवा पर अधिकार करने निकल गए थे। इस तरह पूरण जी घाटवा पहुँचे और थके हुए गौडो को पुरण जी सेना ने खूब पीटा और पूरे गाँव को आग लगा दी।

खूंटियां के युद्ध से भगकर घाटवा में मोर्चा लेने वाले गौड़ों ने घाटवा से उठता हुआ धुंआ देखा तो उनके हौसले परास्त हो गए और वहा से भगकर घाटवा के दक्षिण में पहाड़ की ढाल में जा घुसे। इधर खूंटियां के मैदान में गौड़ों को साफ करके शेखाजी घाटवा पहुँचे और अपने विजयी पुत्र पूरण जी से मिले।किन्तु पिता पुत्र का मिलन क्षणिक था ।पूरण जी घाटवा मे गौड़ों से लड़कर इतने घायल हो चुके थे कि कुछ ही देर बाद उनके प्राण पखेरू उड़ गए।शेखाजी खुद भी घावों से सने हुए थे ,इतिहासकार बताते है कि उनके शरीर पर सोलह घाव थे और खून रिस रहा था। उनके सैनिक भी घायल हो चुके थे जिनकी मरहम पट्टी करना भी जरूरी था लेकिन पहाड़ की तलहटी में रुक जाना भी निति सम्मत नही था। 

इन सब बातों को सोचकर शेखाजी ने अपनी सेना को जीण माता के ओरण की तरफ ले गए। उसी समय शेखाजी के सबसे छोटे पुत्र रायमल जी वहाँ अपनी सैन्य टुकड़ी के साथ पहुँचे । वहाँ कुछ आराम करके सेना सहित गौड़ों की टोह लेने रायमल जी निकले और अपने विजयी पिता शेखाजी से मिले। इस प्रकार एक और उत्साहित सेना को आया देखकर गौड़ों का साहस ही नही हुआ फिर से आक्रमण करने का।
शेखाजी ने वहीं अपने पुत्र दुर्गाजी और पूरण  जी समेत सभी वीरगति प्राप्त योद्धाओ का अंतिम संस्कार करवाया। राव शेखाजी का शरीर भी रलावता तक पहुचते पहुचते घावों से रिस्ते हुए खून से शिथिल हो गया। आज भी शेखाजी की छतरी वहां बनी हुई है। वहीं शेखाजी ने अपने अंत समय को नजदीक आया जान , अपने सामन्तों सरदारों के सामने,पुत्र रायमल को शासन सौप दिया  और सभी पठानों को रायमल के प्रति वफादार रहने की शपथ दिलाई। फिर एक बार सभी योद्धाओ ,सामन्तों सेनापति और सेना की तरफ देखकर शेखाजी ने अपनी पलकें सदा के लिए बन्द कर ली।
घाटवा का युद्ध वि. स.1545 वैशाख शुक्ल तृतीया को लड़ा गया।
#क्रमशः

गुरुवार, 7 अक्टूबर 2021

शेखावाटी का इतिहास भाग-6

                      नारी रक्षा हेतु युद्ध




गौड़वाटी का झुन्थर ठिकाना सीकर जिले के गाँव दांता से 6 मील दूर उतरी पूर्वी कोण में था।वहाँ का शासक कोलराज गौड़ अत्यंत घमंडी उदण्ड और राहबोधि राजपूत था।अपनी कीर्ति सदा के लिए बनाए रखने हेतु उसने मारवाड़ से ढूंढाड़ और बांगड़ प्रदेश जाने वाले मार्ग पर तालाब खुदवाना शुरू किया।कोलराज की याद में कोलोलोव तालाब नाम से प्रसिद्ध यह तालाब दान्ता से 5 मील पूर्वोत्तरी कोण में आज भी अस्तित्व में है।
तालाब की खुदाई में प्रगति के लिए उसने नियम बना दिया कि कोई इस रास्ते से गुजरने वाला राहगीर तालाब से खोदकर एक टोकरी मिट्टी बाहर निकाले। इस नियम का सख्ती से पालन हो इसलिए वहाँ अपने पहरेदार भी नियुक्त कर दिए।तालाब का काम जोर शोर से चलता रहा।कुछ धार्मिक भावना से,कुछ भय से यह काम करते रहे ।अब सैनिक तो अपनी मन मर्जी से किसी से अधिक टोकरियां भी डलवा लेते और किसी को यू ही जाने देते।
एक दिन एक कच्छवाह राजपूत विवाह के एक वर्ष बाद गौना करके अपनी पत्नी को ढूंढाड़ लेकर लौट रहा था।वह जैसे ही उस तालाब वाले रास्ते से गुजरा तो सैनिको ने उसे भी एक एक टोकरी मिट्टी बाहर निकालने को कहा।राजपूत और उसके बहलवान (जो पत्नी की बहली उठा रखे थे) ने एक - एक टोकरी मिट्टी निकाल कर जाने लगे। गौड़ों की हठधर्मी शान ने बहली में सवार उस राजपूतानी से मिट्टी निकालने को कहा। 
इस पर उस राजपुत ने खुद उसकी जगह मिट्टी निकालने को कहा लेकिन गौड़ भी पूरे जोश में थे बोले- नही ,जो खुद उपस्थित है वही निकाले।उनकी इस दृष्टान्त से क्रोधित होकर राजपूत ने उन सबको ललकारा और एक लड़ाई शुरू हो गयी।
गौड़ सैनिको और कोलराज ने बहलावान और उस युवक को मौत के घाट उतार दिया। उस राजपूत युवक का दाह संस्कार उसी कोलोलाव तालाब के पास किया गया। फिर उस नवविवाहिता ने तालाब के पेटे से वक मुट्ठी मिट्टी की भर कर अपने ओढ़नी के पल्ले में बांध ली और अमरसर की ओर रवाना हुई जो कि कछावा वंश की शेखावत शाखा के आधिपत्य में था।
उस समय शेखावाटी के साथ साथ पूरे ढूंढाड़ में भी शेखाजी के नाम से हिरण दौड़ते थे अर्थात उनकी स्त्री, निर्बल और असहाय की रक्षा के चर्चे चारो तरफ थे। यहाँ आकर उस विधवा युवती ने सारी कहानी सुना दी।राव शेखाजी ने युवती को धैर्य रखने को कहा और उसके पति की मौत का बदला लेने का आश्वासन दिया।

अब झुन्थर के गौड़ भी शेखाजी के सम्बन्धी थे।जब शेखाजी न अपने मंत्री मण्डल से बात की तो बदला लेना नीति सम्मत निकला और कोलराज को दंड देने का निश्चित हुआ।300 घुड़सवार और 60 ऊँट लेकर शेखाजी ने गौड़ों पर चढ़ाई कर दी। तालाब पर बैठे गौड़ों ने सोचा कि कोई मारवाड़ की सेना ला काफीला है लेकिन जैसे ही नजदीक पहुँचे तो शेखाजी की सेना ने आक्रमण शुरू कर दिया।
गौड़ों को सम्भलने का मौका ही नही मिला और कुछ गौड़ कोलराज के साथ झुन्थर के गढ़ में घुस गए ।कोलराज को शेखाजी ने ललकारा- कायरों की तरह कहाँ भागकर जाता है । और एक भयंकर युद्ध हुआ।इस युद्ध मे कोलराज अपने साथियों सहित मारा गया। उसका सिर काट कर घोड़े के तोंबरे में रख लिया गया।
इस युद्ध मे शेखाजी के 60 योद्धा मारे गए। अमरसर पहुँच कर कोलराज का कटा सिर उस विधवा राजपूतानी के सामने पेश कर दिया गया और शेखाजी ने अपना प्रण पूरा किया।
अपने वीर पति के खून का बदला लेकर राजपूतानी संतुष्ट और पति ऋण से उऋण हुई और अमरसर के पास स्थित कुँए के  पास चिता तैयार करवाकर सती हो गयी।
कोलराज का कटा सिर अमरसर के शिखर गढ़ के मुख्य द्वार पर लटका दिया गया।
शेखाजी के मंत्री मण्डल ने इसके लीये मना किया था लेकिन उदण्डी को सीख भी देनी थी। इसके बाद गौड़ों ने इसे अपमान समझकर इस सिर को उतार लें जाने की बहुत कोशिश की लेकिन कुछ हाथ न लगा। अंत मे शेखाजी ने ही वह उतरवा दिया।
#क्रमशः

मंगलवार, 5 अक्टूबर 2021

शेखावाटी का इतिहास भाग-5


                  पन्नी_पठानों_का_आगमन




इस समय दिल्ली का सुल्तान बहलोल लोदी था।जिसने वि. स.1508 में दिल्ली पर अधिकार कर लिया था।वह अपने राज्य में भारतीय मुसलमानों के सहयोग और सहायता की अपेक्षा नही रखता था और षडयंत्रो से पूर्णतः परिचित था।
इस कारण रोह के एक कबीले के मुख्य सरदार को पत्र लिखकर आमंत्रित किया। और आदेश भी दिया कि अगर कोई अफगान आपके पास स्वेच्छा से रहे तो उसके भरण पोषण का इंतजाम करो। खैर शेखाजी के आमेर अभियान तक लोदी की नियमावली में शिथिलता आ चुकी थी। रोह के पन्नी पठानों का एक दल ऐसे ही घुमता हुआ वापस जा रहा था तभी उन्होंने सोचा कि चलते हुए सूफी संत शेख बुरहान चिश्ती के दर्शन करते हुए ही चले और यह सोचकर वो शेख बुरहान के तकिया पर आ गए और सारा हाल फकीर को सुना डाला।

शेख बुरहान को अपने अनुयायियों की भी चिंता थी और साथ ही शेखाजी के शासन की भी। उसने एक युक्ति सोची- कि क्यों न इन पठानों के दल को शेखाजी की सेना में शामिल कर दिया जाए जिससे इनके खाने पीने रहने का प्रबंध भी हो जाएगा और शेखा को भी नई ताकत मिलेगी । शेख बुरहान चिश्ती ने शेखा से इस विषय मे बात की और शेखाजी मान गए क्योंकि उन वक्त वह निर्णय कतई गलत नही था। और उसी शक्ति के बल पर शेखाजी ने आमेर जैसी बड़ी रियासत के राजा चन्द्रसेन को छह बार पराजित किया था और उसका मतलब ये था कि जब आमेर की सेना परास्त हो सकती है तो बाकी का तो कोई मुकाबला ही नही।
शेखा ने इनके रहने खाने का बंदोबस्त किया और उनको युद्ध कला में निपुण भी लेकिन शेखा भविष्य को लेकर चिंतित भी था कि कहीं अपने ही खिलाफ इन्होंने षड़यँत्र कर दिया तो??
कुल मिलाकर शेख बुरहान की इस नीति से बहलोल लोदी भी शेखा से खुश हुआ और इधर कभी रुख नही किया और इधर शेखा भी अपनी सेना के बल पर एक के बाद एक गाँव जीतते गए।
शेखाजी की चिंता को दूर करने के लिए शेख बुरहान न शेखा और पठानों के बीच एक अहदनामे का पालन करने की भी व्यवस्था करवा दी।
उनके 12 कबीलों को कबीला खर्च हेतु 12 गाँव दिए गए, इन 12 गावो को "बारह बस्ती" के नाम से जाना जाता है। ये 12 गाँव इस प्रकार थे-
तिगरिया, निवाणा, हस्तेडा, भूतेड़ा, डूंगरी कला, डूंगरी खुर्द, तुर्कियावास,नांगल और हिंगोनिया आदि। खंडेला के पास दायरा गाँव मे आज  भी इन्ही पठानों के वंशज निवास करते है, जो राजा रायसल द्वारा खण्डेला जीतने पर उनके साथ शक्ति बनकर गए थे।
उनके अहदनामे की शर्त थी-
1.शेखाजी और इनके पुत्र, बारह बस्ती के पठानों को अपने भाई की तरह मानेंगे।दोनो में एक दूसरे के हाथ से अगर कोई मारा जाए तो उसका बदला नही लिया जाए।

2.बारह बस्ती के पठान हिन्दुओ के धार्मिक पशु गाय, बैल, और मोर को न तो मारेंगे और न खाएंगे।

3. पठानों के रसोवड़े में झटके का मांस नही आएगा और सुवर का भी नही।

4.पठानों को अब नया झंडा नही रखना है जो नीले कलर का था और शेखाजी का पीत वस्त्र का, किंतु पठानी भावना का आदर करते हुए उन्होंने अपने ध्वज के चौतरफ एक नीली पट्टी लगवाई थी जो सुरक्षा पट्टीका प्रतीक थी।

इस प्रकार दोनो ने पुराण और कुरान को साक्षी मानकर ये शपथ ली। अब शेखाजी का बल और भी बढ़ गया था इससे उनके राज्य में काफी प्रसार और धन वृद्धि भी हुई।
#क्रमशः

सोमवार, 4 अक्टूबर 2021

शेखावाटी का इतिहास भाग-4

                  शेखाजी_का_राज्य_विस्तार




शेखाजी बचपन से ही वीर और साहसी थे।मिट्टी के गढ़ और किले बनाकर खेलते थे।इस दौरान शेखाजी 12 वर्ष की अल्पायु के ही थे कि उनके पिता मोकल जी का देहांत हो गया। वि. स.1502 में ही शेखाजी बरवाड़ा व नाण के स्वामी बने। 
अतः इनका संरक्षक इनके काका खींवराज को बनाया गया और उस वक्त आमेर की गद्दी पर उद्धरण जी विराजमान थे।

16 वर्ष तक कि उम्र आते-आते शेखा की भी राज्य विस्तार की भावना बल लेने लगी।
बरवाड़ा के दक्षिण में आमेर लगता था और उसके पश्चिम में हनुमान की डूंगरी लगती थी जो गौड़ों के हाथ मे था। नाण से पश्चिम में रैवासा व कासली पर चंदेलों का शासन था। उत्तर में खंडेला पर निरबान शक्तिशाली राजा काबिज थे। पूर्वोत्तर में तंवर, टाक और यादवों के ठिकाने थे। तथा ठीक पूर्व में नागरचाल प्रदेश मे सांखला स्वामी थे। इस प्रकार चारों तरफ सत्ता काबिज थी अलग-अलग राजाओ की।

शेखा का पहला अभियान-

शेखाजी न पहला आक्रमण सांखला राजपूतों पर किया और उन्हें वहां से खदेड़ दिया व इस प्रकार शेखाजी न उनके सारे गाँव जीत लिए।पर सांखला भी कहाँ हार मानने वाले थे।वर्तमान शाहपुरा के पास बसे जाँजा को भी शेखाजी न अपने अधिपत्य में ले लिया और वहा अपनी चौकी स्थापित की।
सांखलो के एक के बाद एक सारे गाँव चले गए लेकिन एक गाँव अभी भी बाकी था और वो था शेखाजी के मौसा नोपा जी का गाँव -साईवाड़। वो शेखाजी न इसलिए भी छोड़ रखा था कि घर मे बैर नही।
लेकिन बाकी सर्व सांखला इक्कठा होकर गए नोपाजी के पास जिनका असली नाम था ठाकुर नरपाल सिंह।
लेकिन नोपाजी ने भी युद्ध को इधर उधर की बात करके टालते गए।
आखिर सांखलो राजपूतो के दबाव में आकर उन्होंने शेखाजी को धमकी भरा संदेश भिजवाया-

जाँजा जाण न आजे शेखा, ओ छ साईवाड़।
ओ नोपो हरिराम जी को, देलो तन्ने बिगाड़।।

उस समय आन बान के लिए शीश कट जय करते थे फिर ये तो धमकी थी , इतना सोचकर शेखा न भी साईवाङ पर आक्रमण कर दिया। और एक भयंकर युद्ध हुआ जो पता ही था क्योंकि सांखला शक्ति भी कोई मामूली नही थे। इस युद्ध मे नोपाजी वीरगति को प्राप्त हुए और शेखा न अपने एक टुकड़ी वहा स्थायी कर दी। इसके  बाद सांखलो के बचे गाँव भी शेखाजी के राज्य में मिल गए।
धीरे-धीरे टाक और यादवो के ठिकाने भी इस राज्य में मिल गए और एक नियत कर की व्यवस्था की गई।
इस प्रकार 27 साल की उम्र में शेखाजी का 360 गावो पर अधिकार हो चुका था। 

शेखा गढ़ का निर्माण-

अनेक युद्ध अभियान के बाद शेखाजी ने छापा मार युद्ध प्रणाली के लिए एक उबड़ खाबड़ जगह जो एक पहाड़ी थी पर गढ़ बनाने का निश्चय किया और इसका नाम अमरसर रखा गया । इसका नाम "अमरा धाभाई गुर्जर" के नाम पर रख दिया गया। क्योंकि अमरा गुर्जर की माँ शेखा की धाय मां रह चुकी थी उन्ही की याद में आज भी यह अमरसर अजीतगढ़ -जयपुर हाइवे पर बसा हुआ इलाका है।
 दूसरा कारण यह बताया जाता है कि वहाँ एक अमरसर नामक बड़ा तालाब था जो बारह महीने जल से भरा रहता था जिसका जल कभी खत्म नही हुआ।
इस गढ़ में सबसे पहले कल्याण जी का मन्दिर बना है जो शेखाजी की टाक रानी न बनवाया था। इसके बनने का वक्त वि. स.1516 बताया जाता है।
#क्रमशः

शनिवार, 2 अक्टूबर 2021

शेखावाटी का इतिहास भाग-3

#शेखाजी_का_जन्म_भाग2

गतांक से आगे
-एक जागीरदार का यूँ गायें चराते हुए जंगलो में फिरना उनके सेवकों को अच्छा नही लग रहा था उन्होंने बहुत मनाया लेकिन जब व्रत वाली बात बताई मोकल जी ने अपने सेवकों को तो , सेवक मान गए ।
एक दिन मोकल जी अपनी दिनचर्या के अनुसार गायें चराते हुए जंगल मे विचरण कर रहे थे। और ऐसे करते -करते गायों के साथ वे अरड़की नामक स्थान पर पहुँच गए। वहां ककेडे के वृक्ष की थोड़ी सी छाया के नीचे अद्बुत दृश्य देखकर ठिठक गए।उनके पैर अनायास ही रुक गए। आंखे खुली की खुली ही रह गयी। दोपहर की उस चिलचिलाती धूप में उस छोटी सी छाया में एक धवल वस्त्रधारी मुस्लिम फकीर गाढ़ी निद्रा में लेटे थे। उनकी निद्रा में विघ्न न पड़े इसलिए वो दूर- दूर गायें चराते रहे और उस फकीर पर दृष्टि जमाये रखे।

कुछ समय बाद जब फकीर की नींद खुली तो स्वयं उंसके पास जाकर विनम्र भाव से अभिवादन किया। उनके हाव- भाव देखकर फकीर समझ गया कि ये अवश्य कोई राजसी पुरूष है कोई ग्वाला या चरवाहा तो नही। फकीर ने सीधा ही पूछ लिया- इतने लोगों के होते हुए आप स्वयं गायें क्यों चराते है महाराज?
अब मोकल जी फकीर की मुख मण्डल की आभा से प्रभावित हो चुके थे और सोच रहे थे ये तो बड़े फकीर है इनको मेरी दशा के बारे में मालूम है। मोकल जी तुरन्त बोले- बाबा, मुझे संतान की कमी है। किसी वृन्दावन के सन्त महाराज ने कहा था कि - तुम गायें चराने का व्रत धारण करो तब कुछ बन सकता है अब मैं ये गायें इसीलिए चराता हूँ।

ये फकीर भी कोई साधारण फकीर नही थे वे महान फकीर शेख बुरहान चिश्ती थे। मोकल जी की इस व्यथा को सुनकर फकीर द्रवित हो गए और फिर मोकल जी अपने व्रत का पालन और निष्ठा देखकर फकीर भी प्रभावित हो गए। अंत मे फकीर ने बोला- अल्लाह ताला ने चाहा तो तुम्हे अवश्य पुत्र प्राप्त होगा और पुत्र को साधारण नही बल्कि वीर प्रतापी और असाधारण शूरवीर योद्धा होगा।

अब फकीर शेख बुरहान चिश्ती की बातें सुनकर मोकलजी के हृदय को शांति मिली।उन्होंने फकीर से वही रहने का आग्रह किया। साधु संत फकीर किसी जाति धर्म के भेदभाव को महत्व नही देते बल्कि आस्था वाले सच्चे हृदय को पहचान लेते है।उसी प्रकार शेख बुरहान चिश्ती ने मोकल जी की बात को स्वीकार कर लिया।

जंगल मे अरड़की के उसी ककेडे की शीतल छाया वाले स्थान पर फकीर का मठ बनवा दिया जो अब चिल्ला शेख बुरहान के नाम से प्रसिद्ध है। शेख का यह तकिया नाण अमरसर से कोई डेढ़ दो मील दूर दक्षिण पूर्व कोण में चौतरफा नालों से खण्डित एक टीले पर बना हुआ है। तकिये के बाहर विशाल पेड़ो का झुरमुट है।

उसी शेख की वाणी के फलित होने पर मोकल के घर पुत्र की प्राप्ति हुई और निर्बाण जी रानी को यह सौभाग्य प्राप्त हुआ। क्षत्रिय राजपूतों की इस प्रसिद्ध शाखा  के जन्मदाता बनने बाले इस नर रत्न का नाम उसी फकीर शेख बुरहान के नाम पर शेखा रख दिया गया। इससे राव मोकल जी को अपार खुशी हुई औऱ 12 वर्ष तक अपने बालक की चंचल क्रीड़ाओं को निहारते रहे। वि. सं.1502 में मोकल जी इस संसार से विदा हो गए।
कुछ लोग शेखा जी का जन्म स्थल बरवाड़ा को भी मानते है उनका कहना है कि-
#अर्क_बार_दशमी_विजय_क्वार_सुकल_सीध_काम
#जिण_दिन_सेखो_जलमियों_बरवाड़े_बरियाम
#क्रमशः

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