बारिश की बेला
बेला बारिश की जब भी आती,
बेचैन पड़े मन को हरसाती।
खाली पड़ा था जो खलिहर कौना,
उनमे अब उन्माद की हंसी लहलाती ।।
आ जाये कभी सर्दी में भी,
तो मावठ कहलाती,
ठिठुरन तो वैसे भी ज्यादा होती,
जब साहूकार की बही सताती।।
आना था इसको तो ऐसे क्यूँ था आना,
जिसके आने से उम्मीदों को पड़ा दफनाना।
लाया था जो ऋण कुछ सालों में,
आखिर उसको भी तो था सूद समेत चुकाना।।
ऐसे तो पलकें मेरी,
थक जाती थी इसकी बाट में,
आती अगर वेला पर तो,
मेरी हस्ती रहती ठाट में।
पाले थे बैल नही, थे ये अरमान मेरे,
पर क्या करूँ जब,सोए है भाग्य मेरे।
फिर भी मेहनत रात दिन मैं करता हूँ,
ताकि जीवन मे हो मेरे उज्जवल सवेरे।।
अब जब ये आयी है तो आफत की बिरखा लायी है,
डाले थे जो स्वछंद बीज सपनो के,उनकी शामत आयी है।
हर चीज पर मेरा जोर कहाँ,बस इसकी अपनी मनमानी है,
भले बहे खूब पसीना, अभी हार कहाँ मैने मानी है।।
आखिर नवांकुर के उजाले को आना ही होगा,
हर कृषक का संताप मिटाना होगा।
आयगी उसके भी चेहरे की रौनक जब,
खेतों में हर तरफ सोना ही सोना होगा।।
5 टिप्पणियां:
जी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार(१८-०७ -२०२२ ) को 'सावन की है छटा निराली'(चर्चा अंक -४४९४) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
जी शुक्रिया,आभार
सुंदर भावों से भरपूर रचना!--ब्रजेन्द्र नाथ
सुंदर भाव!
बेहतरीन सृजन।
जी सुंदर सृजन ।
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