बुधवार, 29 दिसंबर 2021

खण्डेला का इतिहास भाग-16

सतनामी विद्रोह खण्डेला बही




गतांक से आगे-
सतनामी विद्रोह-
इस किस्से का जिक्र इसलिए जरूरी है क्योंकि इस विद्रोह ने पूरे मुगलिया तख्त को हिलाकर रख दिया था और कालक्रम अनुसार यह घटना भी शेखवाटी के नजदीकी क्षेत्र की होने के कारण जिक्र होना जरूरी था। इसी दरमियाँ औरंगजेब के ध्यान दूसरी रियासतों की तरफ गया नही।
इसी दौरान सतनामी विद्रोह शुरू हो गया जो 15 मार्च 1672 में हुआ।सतनामी एक धार्मिक समूह था और नारनोल के पास बिजेसर गाँव के वीरभान द्वारा 1540 में स्थापित किया हुआ था।
एक सतनामी किसान और सरकारी चौकीदार के मध्य मारपीट शुरू होने के बाद इस लड़ाई ने उग्र रूप धारण कर लिया था।सतनामियों ने संगठित होकर विद्रोह शुरू कर दिया और धीरे धीरे इसने आंदोलन का रूप ले लिया। पांच हजार से अधिक सतनामी इक्कठे होकर मार काट करने लगे।नारनोल का बादशाही फौजदार जान बचाकर भाग निकला।विद्रोहियों ने नारनोल कस्बा लूट लिया,मस्जिदें ढहा दी गयी और गाँवो में लगान लेना शुरू कर दिया।

सतनामी मुंडिया कहे जाते थे जिसमें खाती, सुनार, रेगर आदि सभी मेहनतकश हिन्दू जातियों के लोग इस सम्प्रदाय में थे। नारनोल का फौजदार करतब खान था उसने आक्रमण किया तो कई सतनामी मारे गए लेकिन फौजदार को भगाने में कामयाब रहे और 17 कोस तक सारे इलाके लूट लिए गए। इस विद्रोह का लाभ उठाकर पड़ोसी राजपूत जमीदारो ने भी कर देना बंद कर दिया जिसमे खण्डेला भी एक था।

सतनामियों के चमत्कार की खबर सुनकर बादशाही सेना भयभीत हो गयी।तब बादशाह ने अपने झंडे पर उर्दू में आयतें लिखवाकर चिपकवाई ताकि सैनिको की हौसला अफजाई हो सके। इसके बाद एक दल रन अन्दाजखां को तोपखाने के साथ और हमीद खान को 500 अश्वरोही टोली के साथ भेजा गया। यह बड़ी भीषण लड़ाई हुई ,देखने वालो ने इसे" महाभारत" की संज्ञा भी दी। सतनामी बड़ी बहादुरी से लडे  और शहीद हो गये। यह विद्रोह 15 मार्च 1672 में शुरू हुआ और 7 अप्रैल 1674 में पूर्ण रूप से दबाया गया।

इस विद्रोह ने पूरी राजपूताने की जनता का हौसला बढ़ाया और औरंगजेब को हिला कर  रख दिया। इसके बाद प्रत्येक जगह औरंगजेब के खिलाफ विद्रोह होने लगे और वह इन विद्रोहियों को दबाने में ही लगा रहा।
#क्रमशः

शनिवार, 25 दिसंबर 2021

खण्डेला का इतिहास भाग-15

राजा बहादुर सिंह खण्डेला




गतांक से आगे-
वरसिंहदेव के बाद खण्डेला की राजगद्दी पर आसीन हुए उनके बड़े पुत्र बहादुर सिंह ।इसी समय दिल्ली का सुल्तान औरंगजेब आलमगीर के नाम से बादशाह जबरदस्ती बन चुका था। जी हां, जबरदस्ती इसलिए कि ,उसने अपने पिता शाहजहाँ की बीमारी का सुनते ही छोटे भाई मुराद को साथ लेकर विद्रोह कर दिया। उसी विद्रोह को लड़ता छोड़ वरसिंहदेव खण्डेला आ गए थे।जिससे औरंगजेब को तो उल्टा फायदा ही हुआ और  वह आसानी से राजा बन गया। अपनी क्रूर नीति के अनुसार औरंगजेब धीरे-धीरे सबको अपने रंग दिखाने लगा था।

उसने खण्डेला जैसी छोटी रियासत के नए राजा बहादुर सिंह को दक्षिण में अपने पूर्ववर्ती पुरखों की तरह किलेदार बना दिया। अब बहादुर सिंह दक्षिण में किलेदार थे। उधर महाराष्ट्र में शिवाजी मुगलई सेना को छापामार युद्ध मे शिकस्त दे रहे थे। उसमे बहादुर सिंह को भी कई कष्ट वहाँ झेलने पड़े और कुल मिलाकर बहादुर सिंह भी अपने पिता की तरह मुगलिया पद और किलेदारी छोड़कर खण्डेला आने का मन बना ही रहे थे। उसी दौरान उनके समकक्ष सेनापति जो औरंगजेब का चहेता था उसका नाम बहादुर खान था।

वह बहुत सारे छोटे-मोटे विद्रोह और लड़ाइयां जीत कर अपने प्रदर्शन को दिखा चुका था उसका असली नाम मलीक हुसैन था लेकिन बहादुर खान के नाम से प्रसिद्ध ही चुका था। नवाब बहादुर खान और बहादुर शाह की जब एक ही जगह नियुक्ति हुई तो नवाब को बहादुर सिंह से ईर्ष्या होने लगी। "केसरीसिंह समर"में कहा गया है कि- बहादुर खान ने राजा बहादुर सिंह से कहा-अपना नाम बदल लो वरना अपने घर जाओ।

"सिंघ बहादुर सिंह सूं, बदतु बहादुर खान।
फेरि देहु निज नाम को,कह तुम जावहु थान।।"

शायद नवाब को डर हो कि कही उसकी उपलब्धियों को इतिहास बहादुर सिंह के नाम से जाने इस वजह से ऐसा कहा गया हो?लेकिन असली मत क्या था किसी को नही पता।
इसी रचना में आगे लिखा है कि -बहादुर सिंह नगाड़ो पर डंका दिलवाता है और खण्डेला की तरफ रुख कर लेता है।

"चढ़यो नृपति रिसकर, बाजत सुने निसान।
बाट घाट रोकन निमित, लिखे खान फुरमान।।"

नवाब बहादुर खान ने फरमान जारी किया कि- यह बचकर अपने राज्य को नही जाना चाइये और उसने उसके पीछे एक टुकड़ी भेजी लेकिन बहादुर सिंह जितना जंगल को समझते थे उतना कोई नही ।उन्होंने नर्मदा नदी के तट पार कर किनारे से अपनी सेना को खण्डेला तक कब पहुँचा दिया,टुकड़ी को पता भी नही चला। इस प्रकार जोधपुर जैसी बड़ी रियासत की तरह खण्डेला जैसी छोटी रियासत ने भी अहंकारी और हिन्दू विरोधी औरंगजेब के साथ छोड़ दिया था और ये दूसरी बार था जिससे दिल्ली में बैठा औरंगजेब बोखला उठा और बोखलाए भी क्यों न आखिर दक्षिण में शिवाजी और बुंदेलखंड में छत्रसाल उंसके दिल का नासूर बन गया था और अब तो राजस्थान के राजाओं ने भी कुटिल औरंगजेब के साथ छोड़ दिया था।

ऐसा बताया जाता है कि दक्षिण के एक पंडित औरंगजेब के पास अकूत सोने चांदी के खजाने की जानकारी लेकर आया था लेकिन दक्षिण जाने के रास्ते मे महाराष्ट्र की सीमा और मध्य प्रदेश के मालवा की सीमा उसे पार कैसे जाने देती और अब दक्षिण के प्रवेश द्वार वाले बुरहान पुर पर कोई राजा औरंगजेब की तरफ नही था। उसी सोने चांदी के लालच में औरंगजेब अंधा हो चूका था वह यह भी मानता था कि उसके पिता ने सारा दिल्ली खजाना स्थापत्य कला  और अय्याशियों में खत्म कर दिया था।

राजा बहादुर सिंह के खण्डेला आना अब औरंगजेब को अच्छा नही लगा वह खण्डेला को सबक सिखाने की जुगत में लग गया। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि  औरंगजेब की हिन्दू विरोधी नीतियों और राजा बहादुर सिंह की शिवाजी की हिन्दू धर्म रक्षार्थ मुगलो से लड़ाई के कारण उनकी ,शिवाजी के प्रति सहानुभूति रही है।इनका कहना है कि जब राजा बहादुर शिवाजी से मिले तो उनकी बातों ने औरंगजेब के प्रति नफरत और बढ़ा दी जिसके बाद राजा बहादुर सिंह खण्डेला लौट आये। इसी दरमियाँ  विक्रमी 1724 में मिर्जा राजा जयसिंह जयपुर के स्वर्गवास हो गया जिससे औरंगजेब की नीतियां और खुलकर सामने आने लगी।

मन्दिरो में पूजा आरती बन्द करवा दी गयी और तभी औरंगजेब ने नारनोल के फौजदार को खण्डेला के राजा बहादुर सिंह को दंड देने हेतु भेजा गया।
अगले भाग में खण्डेला पर हुए आक्रमण के वृतांत आएंगे।
#क्रमशः

गुरुवार, 16 दिसंबर 2021

खण्डेला का इतिहास भाग-14

राजा वरसिंहदेव-एक अनोखा राजा




गतांक से आगे-
राजा दलथम्बन द्वारकादास के बाद उसके ज्येष्ठ पुत्र वरसिंहदेव खण्डेला की राजगद्दी पर बैठे। द्वारकादास के तीन पुत्र होने का वर्णन मिलता है।
1 वरसिंहदेव
2 विजय सिंह
3 सलेदी सिंह

"बन्धु नृपति के दोय भुव, बीजै सलेदिराय।
तिन्ही करी सेवा सुभग,वित्त सम भूमिपाय।।"

वरसिंहदेव की नियुक्ति काबिलगड के किलेदार के रूप में थी और 800 का मनसब प्राप्त था। वरसिंह देव का धरमत के युद्ध मे लड़ने का वर्णन मिलता है। उंसके साथ भाई विजय सिंह और जयचंद दलपतोत, श्यामचन्द बलभद्रोत आदि योद्धाओ ने भी भाग लिया था। धरमत का युद्ध भी दिल्ली सल्तनत के उत्तराधिकार का युद्ध था जिसमे शाहजहाँ के बीमार होते ही उसके पुत्रो में मुराद और औरंगजेब ने बिद्रोह कर दिया था और शाही सेना पर आक्रमण कर दिया । इस युद्ध मे जोधपुर के महाराजा जसवंतसिंह और कासिम अली नेतृत्व कर रहे थे और सामने औरंगजेब और मुराद की सेना थी यह युद्ध उज्जैन से 14 मील दूर धरमत में लड़ा गया जिसमें औरंगजेब विजयी हुआ और दिल्ली की तरफ बढ़ गया। 
वरसिंहदेव ,जसवंत सिंह जोधपुर के विश्वस्त सेनापतियों में से एक रहे थे। लेकिन बाकी राठौड़ सरदारों द्वारा सहमति से जोधपुर महाराजा जसवंत सिंह को बचाकर  जोधपुर लाया गया। और किवदंती है कि जब महाराजा जब इस मुगल उत्तराधिकार युद्ध मे लड़ना उचित न समझकर जब वापस आये तो वरसिंहदेव को भी यह न्याय सम्मत लगा और उसने उस युद्ध मे शाहजहाँ के चारों बेटों को लड़ता छोड़कर खण्डेला आ गया जिसके कारण खण्डेला आगे जाकर मुगलों के कोप का भाजन भी बना और उसी प्रकार का दंड औरंगजेब ने राजा बनते ही जोधपुर को भी दिया।
वरसिंहदेव के भाई थे विजय सिंह और सलेदी सिंह। विजय सिंह को मांडोता गाँव की जागीर के साथ 7 गाँव और मिले थे।मांडोता में उसने एक दुर्ग का निर्माण भी करवाया ,उंसके खण्डहर आज भी विद्यमान है।

सलेदी सिंह तीसरा पुत्र था, और महान योद्धा राठौड़ रायमल मालदेवोत का दोहिता था,जिसने खण्डेला के पास सलेदीपुरा गाँव बसाया और अपने लिए एक दुर्ग का निर्माण भी करवाया। यह दुर्ग आज भी अरावली की सुरम्य वादियों में यों ही खड़ा है, लेकिन इसके कुछ हिस्से जर्जर हो गए है। सलेदी सिंह को खण्डेला के पास उदयपुरवाटी रोड पर स्थित सलेदीपुरा और इसके अलावा रामपुरा दाधिया भी जागिर में मिला था। कालांतर में सलेदीपुरा खण्डेला छोटा पाना के राजाओं के अधिकार में चला गया लेकिन  दादिया की तन में बसी हुई भौमियों की ढाणी आज भी सलेदिराय के वंशजो के अधिकार में है।

वरसिंहदेव अपने पूर्वजों की तरह ज्यादा रण कौशल में न होकर एक साधारण राजा हुए।राजा वरसिंह देव की मृत्यु विक्रमी 1720 में हुई और दाह संस्कार जगरूप जी के बाग में सागल्या वाली कोठी के समीप हुआ, इसका वर्णन सूर्यनारायण शर्मा द्वारा लिखित खण्डेला का इतिहास में मिलता है।
इनके आठ पुत्र थे जिनमें ज्येष्ठ बहादुर सिंह और बाकी में श्याम सिंह, अमरसिंह, जगदेव, भोपत सिंह,प्रताप सिंह,मोहकम सिंह और रूड सिंह थे।

वरसिंहदेव के काल मे खण्डेला में कुछ अन्य काम भी हुए जिनमे ब्राह्मणों को उसने भूमि दान देकर आत्मनिर्भर बना दिया था और इसके समय 16 तुलादान का वर्णन केसरीसिंह समर में मिलते है। संगीत ,नृत्य और वाद्य में विशेष रुचि होने के कारण दूर-दूर के गायक और वाद्य विशेषज्ञ उंसके दरबार मे थे। विद्वानों और संगीतज्ञों को वह सोनेहरी साज के घोड़े बख्सीस करता था।
राजा वरसिंहदेव शिकार के शौकीन भी थे और सघन वनों में प्रतिदिन भृमण करते थे।
केसरीसिंह समर के अनुसार वह शेर की मांद में उसे जगाकर शेर से कटार लेकर भीड़ जाता था और उसे धराशायी कर देता था।
उसके राजदरबार में अपने भाई बन्धुओ से बड़ा लगाव था। उसके भाई- बन्ध सभा मे बैठे हुक्के का कश खींचते रहते थे और नित्य राज -काज की बातें किया करते थे।उसने अपनी एक पुत्री का विवाह जसवंत सिंह प्रथम जोधपुर से किया और दूसरी का बीकानेर के राजा अनूप सिंह से किया जो खुद बीकानेर के कवि, लेखक और पुस्तकप्रेमी राजा के रूप में विख्यात हुए। बीकानेर में अनूप पुस्तकालय उनकी ही देन है जहां विलियम टेसीटोरी ने सारी किताबे पढ़ डाली थी।
राजा वरसिंहदेव का व्यायाम और कुश्ती में भी झुकाव था और रामायण भागवत और महाभारत भी अपने विद्वानों से सुनता रहता था जो इस दोहे(केसरीसिंह समर ) से पता चलता है-

"साध्यो प्राणायाम जिन,सुनी भागोत सुधर्म।
किती बार भारत सुन्यो,किये सभी जिगी कर्म।।"
#क्रमशः

गुरुवार, 9 दिसंबर 2021

खण्डेला का इतिहास भाग-13

द्वारकादास शेखावत (दलथम्बन)का शौर्य




गतांक से आगे-
इसी समय का एक और किस्सा है जिसमे द्वारकादास को दक्षिण की चौकी पर तैनात किया जाता है जहाँ उनके साथ राव रतन हाड़ा को भी तैनाती दी जाती है।
इसके पहले (हरियाणा व अलवर के पास का क्षेत्र)के मेवात में खानजादा विद्रोह हुआ जिसमें पूरे पड़ोसी क्षेत्र में अव्यवस्था फैल गयी थी उसका दमन करने के लिए द्वारकादास अपनी सेना लेकर निकले और उनके विद्रोह का दमन किया लेकिन यह कार्य बड़ा दुष्कर था क्योंकि मेवात के विद्रोह दुर्गम पर्वतों में आक्रमण करके छिप जाते थे।फिर भी द्वारकादास ने उनके गढ़ी और खुफिया ठिकानों को ध्वस्त कर दिया था।
मेवात के खानजादा कोटला के यादव क्षत्रिय  वंशज थे जिन्हें बाद में इस्लाम कबूल करवाया गया था, इनके वंशज आज भी मेवात क्षेत्र में निवासरत है।यह कार्य फिरोजशाह तुगलक के शासनकाल में हुआ था। यह विद्रोह अगर नही दबाया जाता तो शायद आज नक्शा कुछ अलग होता।

नूरजहाँ के चाल बाजी के  कारण शहजादा खुर्रम को यह लगने लगा कि अगला राजा उसको नही बनाया जाएगा इसलिए वह विद्रोह करके दिल्ली से भाग दक्षिण की तरफ भाग आया, जबकि दक्षिण की सूबेदारी द्वारकादास शेखावत, राव रतन हाड़ा, माधो सिंह कछवाह, जैत सिंह राठौड़ आदि योद्धाओ के पास थी। खुर्रम ने अब्दुल्ला खा और शाहकुली खान को आक्रमण हेतु भेजा लेकिन सामने इतने सारे राजपूत योद्धा थे उंसके सिपहसालार से क्या ही हार मानते। बताया जाता है कि अब्दुल्ला तो एक तीर के बाद ही ऐसा गायब हुआ की नजर तक नही आया और शाहकुली खान ने बहादुरी से लड़ाई की लेकिन वह हार गया। शहजादा खुर्रम अपनी टुकड़ी के साथ पीछे था लेकिन वह आसानी से बन्दी बनाया जा सकता था लेकिन राव रतन हाड़ा चाहते थे कि यही अगला बादशाह बने इसलिए उसे भगा दिया गया क्योंकि नूरजहाँ जिसे राजा बनाना चाहती थी वह किसी सूरत से राजा बनने लायक नही था  और इसके लिए द्वारकादास और माधो सिंह को खुर्रम से बात करने भेजा गया था। ऐसा वर्णन वंश भास्कर में दिया गया है।

विक्रमी 1684 में जहाँगीर की मृत्यु हो गयी और उसका पुत्र खुर्रम शाहजहाँ के नाम से राजा बना जिसने दक्षिण में नियुक्त सभी सरदारों के मनसब में दुगनी वृद्धि कर दी। इसके बाद शाहजहाँ इन पांच सरदारों से सलाह मशविरा बिना कोई निर्णय नही लेता था। राजस्थान के महान इतिहासकार ओझा जी लिखते है कि द्वारकादास का 1500जात और 1000 सवार का मनसब था।

#खानजहां_का_विद्रोह
जब शाहजहाँ नया बादशाह बन गया तो खानजहां नाखुश था जिसे नूरजहाँ राजा बनाना चाहती थी। वह फिर शाहजहाँ की तरह विद्रोह बनकर दिल्ली से दक्षिण निकल गया क्योंकि उसको डर था कि उसका कत्ल करवा दिया जाएगा। इसलिए शाहजहाँ ने भी उंसके पीछे उसे मारने हेतु योद्धा भेजे लेकिन वह किसी को हाथ नही लगा और निजामशाही शासन में शरण ले ली।वह वहां से बालाघाट व बुन्देलखण्ड में सेंध मारता रहा।
जब द्वारकादास से सहायता ली गयी तो द्वारकादास अपनी टुकड़ी के साथ गाँव मे पहुँचे और छापामार युद्ध शुरू हुआ । थोड़ी देर बाद खानजहां  ने द्वारकादास को द्वंद युद्ध हेतु ललकारा कि शेरेमर्द है तू सुना है।
अगर वाकई ऐसा है तो बाहर निकल ।चूहों की तरह बिल में क्या घुस रखा है।द्वारकादास जी बाहर निकले और चुनोती स्वीकार की। जब आपसी भिड़ंत हुई तो द्वारकादास शेखावत ने अपने बरछे(सांग) के एक प्रहार से उंसके वक्षस्थल को विदीर्ण कर दिया लेकिन धराशाही होते हुए खान ने तलवार के प्रहार से राजा का शिरच्छेदन कर दिया और दोनों योद्धा एक साथ धरती पर गिरे। ऐसे बताया जाता है कि शीश कटने के बाद उनका धड़ भी लड़ता रहा था।इस लड़ाई में उनका भतीजा मान सिंह भी 34 योद्धाओ के साथ गाँव की रक्षा हेतु शहीद हो गया।
1.एक पुराना दोहा है जो "केसरी सिंह समर"  में लिखा है,यह बताता है-

"द्वार सेल घमोड़ियो, खानीजहाँ उर खण्ड।
पड़ते खान पीछाटियो, राजा सीस दुरण्ड।।"

2.प्रसिद्धअंग्रेज  इतिहासकार कर्नल टॉड ने लिखा है कि -फरिस्ता ने खानीजहाँ की जीवनी में खान का द्वारकादास के हाथ से और द्वारकादास का खान के हाथ से मारे जाने का विवरण ही लिखा था।

3. महाकवि सूर्यमल्ल मिश्रण ने "वंश भास्कर'"में लिखा-

"पृतना सह बुरानपुर, पत्तो पहुँ जसपीन।
कूर्म द्वारकादास कँह, कटकईस तँहक़ीन।।"

अर्थात सेना के बुरहान पुर पहुचने पर द्वराकादास को सेनापति बनाया और वह अल्प योद्धाओ के साथ भी भीषण युद्ध किया।
द्वारकादास को #दलथम्बन (सेना को रोकने वाला) की उपाधि शायद इसीलिए दी गयी थी। द्वारकादास भगवान नृसिंह के भक्त थे।

भूमिदान- इस युद्ध के 27 दिन पहले द्वारकादास ने धर्मपुरा दक्षिण में गंगादास मिश्र के पुत्र छितर मिश्र को पट्टा दिया जिसमें खण्डेला कस्बे की 101 बीगा भूमि प्रदान की।(खण्डेला छोटा पाना दस्तावेज)
#क्रमशः

शुक्रवार, 3 दिसंबर 2021

खण्डेला का इतिहास भाग-12

द्वारकादास रायसलोत और खण्डेला



गतांक से आगे-
अब खण्डेला की राजगद्दी पर विक्रमी 1680 में द्वारका दास बैठ गए थे जो गिरधर जी के पुत्र और राजा रायसल के पौत्र थे। द्वारकादास जी मुगलो के दो बादशाह जहाँगीर और शाहजहाँ के समकालीन थे। इनको भी नियमानुसार शाही सेवा में जाना पड़ा, अपने पिता की जगह। द्वारकादास जी का एक किस्सा बड़ा प्रसिद्ध था,जिसके बारे में चर्चा करते है-

एक दिन राजा द्वारकादास जी जब शाही दरबार मे उपस्थित थे तब बादशाह एक शेर पकड़ लाये और उस शेर से युद्ध करने के लिये उन्होंने प्रचलित रीति से सूचना निकाली। उस समय मनोहरपुर के राव जी भी वहाँ उपस्थित थे।राव जी कुभावना से प्रेरित होकर बादशाह से कहा कि - हमारी जाति के रायसलोत द्वारकादास जो प्रसिद्ध वीर नाहर सिंह जी के शिष्य रहे है,इस शेर से कुश्ती करने के पात्र, एक मात्र पूरे दरबार मे वही है। ये राव जी वही थे जो राव लूणकरण जी के वंशज थे, जो कि रायसल जी के बड़े भाई थे और उनकी प्रगति से ईर्ष्या करते थे और ऐसे ही एक किस्सा पहले रायसल जी और लूणकरण जी के बारे में पढ़ा था जिसमे प्रसिद्ध इतिहासकार कर्नल जेम्स टॉड ने लिखा था।

द्वारकादास जी अपने जाति भाई की चालाकी को ताड़ गए,फिर भी प्रसन्नतापूर्वक शेर से लड़ने के प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। पूरा मैदान दर्शको से भर गया। द्वारकादास जी स्नान कर पूजा की सामग्री लिए शेर के सामने उपस्थित हुए और शेर को तिलक किया,गले मे माला पहनाई और स्वयं आसन पर धीर भाव से बैठकर अर्चन करने लगे। शेर बहुत देर तक द्वारकादास जी को सूंघता रहा लेकिन कुछ किया नही। दर्शक ये देखकर दंग रह गए।

तब बादशाह भी अचंभे में थे कि ये कैसे सम्भव है?लेकिन फिर द्वारकादास जी को अपने पास बुलाया। बादशाह को विश्वास हो गया था कि यह कोई दैवीशक्ति सम्पन्न पुरुष है। बादशाह ने द्वारकादास को वर मांगने को कहा।  द्वारकादास जी ने निवेदन किया कि अगर कुछ देना ही है तो ये वचन दो कि आज के बाद किसी दूसरे को ऐसी विपति में न फसाया जाए। बादशाह बोले - आपके हुक्म को अब हमेशा ध्यान में रखा जाएगा।

ऐसे किस्सों पर यकीन तो मुझे भी नही होता लेकिन जब इतिहासकारों ने लिखा है तो कुछ तो बात अवश्य हुई होगी और फिर राजा भरत का किस्सा तो सबने पढ़ा ही होगा जो कि वन में शेरों के साथ ही खेलता था।
#क्रमशः

लोकप्रिय पोस्ट

ग्यारवीं का इश्क़

Pic- fb ग्यारवीं के इश्क़ की क्या कहूँ,  लाजवाब था वो भी जमाना, इसके बादशाह थे हम लेकिन, रानी का दिल था शायद अनजाना। सुबह आते थे क्लासरूम में...

पिछले पोस्ट