गुरुवार, 16 दिसंबर 2021

खण्डेला का इतिहास भाग-14

राजा वरसिंहदेव-एक अनोखा राजा




गतांक से आगे-
राजा दलथम्बन द्वारकादास के बाद उसके ज्येष्ठ पुत्र वरसिंहदेव खण्डेला की राजगद्दी पर बैठे। द्वारकादास के तीन पुत्र होने का वर्णन मिलता है।
1 वरसिंहदेव
2 विजय सिंह
3 सलेदी सिंह

"बन्धु नृपति के दोय भुव, बीजै सलेदिराय।
तिन्ही करी सेवा सुभग,वित्त सम भूमिपाय।।"

वरसिंहदेव की नियुक्ति काबिलगड के किलेदार के रूप में थी और 800 का मनसब प्राप्त था। वरसिंह देव का धरमत के युद्ध मे लड़ने का वर्णन मिलता है। उंसके साथ भाई विजय सिंह और जयचंद दलपतोत, श्यामचन्द बलभद्रोत आदि योद्धाओ ने भी भाग लिया था। धरमत का युद्ध भी दिल्ली सल्तनत के उत्तराधिकार का युद्ध था जिसमे शाहजहाँ के बीमार होते ही उसके पुत्रो में मुराद और औरंगजेब ने बिद्रोह कर दिया था और शाही सेना पर आक्रमण कर दिया । इस युद्ध मे जोधपुर के महाराजा जसवंतसिंह और कासिम अली नेतृत्व कर रहे थे और सामने औरंगजेब और मुराद की सेना थी यह युद्ध उज्जैन से 14 मील दूर धरमत में लड़ा गया जिसमें औरंगजेब विजयी हुआ और दिल्ली की तरफ बढ़ गया। 
वरसिंहदेव ,जसवंत सिंह जोधपुर के विश्वस्त सेनापतियों में से एक रहे थे। लेकिन बाकी राठौड़ सरदारों द्वारा सहमति से जोधपुर महाराजा जसवंत सिंह को बचाकर  जोधपुर लाया गया। और किवदंती है कि जब महाराजा जब इस मुगल उत्तराधिकार युद्ध मे लड़ना उचित न समझकर जब वापस आये तो वरसिंहदेव को भी यह न्याय सम्मत लगा और उसने उस युद्ध मे शाहजहाँ के चारों बेटों को लड़ता छोड़कर खण्डेला आ गया जिसके कारण खण्डेला आगे जाकर मुगलों के कोप का भाजन भी बना और उसी प्रकार का दंड औरंगजेब ने राजा बनते ही जोधपुर को भी दिया।
वरसिंहदेव के भाई थे विजय सिंह और सलेदी सिंह। विजय सिंह को मांडोता गाँव की जागीर के साथ 7 गाँव और मिले थे।मांडोता में उसने एक दुर्ग का निर्माण भी करवाया ,उंसके खण्डहर आज भी विद्यमान है।

सलेदी सिंह तीसरा पुत्र था, और महान योद्धा राठौड़ रायमल मालदेवोत का दोहिता था,जिसने खण्डेला के पास सलेदीपुरा गाँव बसाया और अपने लिए एक दुर्ग का निर्माण भी करवाया। यह दुर्ग आज भी अरावली की सुरम्य वादियों में यों ही खड़ा है, लेकिन इसके कुछ हिस्से जर्जर हो गए है। सलेदी सिंह को खण्डेला के पास उदयपुरवाटी रोड पर स्थित सलेदीपुरा और इसके अलावा रामपुरा दाधिया भी जागिर में मिला था। कालांतर में सलेदीपुरा खण्डेला छोटा पाना के राजाओं के अधिकार में चला गया लेकिन  दादिया की तन में बसी हुई भौमियों की ढाणी आज भी सलेदिराय के वंशजो के अधिकार में है।

वरसिंहदेव अपने पूर्वजों की तरह ज्यादा रण कौशल में न होकर एक साधारण राजा हुए।राजा वरसिंह देव की मृत्यु विक्रमी 1720 में हुई और दाह संस्कार जगरूप जी के बाग में सागल्या वाली कोठी के समीप हुआ, इसका वर्णन सूर्यनारायण शर्मा द्वारा लिखित खण्डेला का इतिहास में मिलता है।
इनके आठ पुत्र थे जिनमें ज्येष्ठ बहादुर सिंह और बाकी में श्याम सिंह, अमरसिंह, जगदेव, भोपत सिंह,प्रताप सिंह,मोहकम सिंह और रूड सिंह थे।

वरसिंहदेव के काल मे खण्डेला में कुछ अन्य काम भी हुए जिनमे ब्राह्मणों को उसने भूमि दान देकर आत्मनिर्भर बना दिया था और इसके समय 16 तुलादान का वर्णन केसरीसिंह समर में मिलते है। संगीत ,नृत्य और वाद्य में विशेष रुचि होने के कारण दूर-दूर के गायक और वाद्य विशेषज्ञ उंसके दरबार मे थे। विद्वानों और संगीतज्ञों को वह सोनेहरी साज के घोड़े बख्सीस करता था।
राजा वरसिंहदेव शिकार के शौकीन भी थे और सघन वनों में प्रतिदिन भृमण करते थे।
केसरीसिंह समर के अनुसार वह शेर की मांद में उसे जगाकर शेर से कटार लेकर भीड़ जाता था और उसे धराशायी कर देता था।
उसके राजदरबार में अपने भाई बन्धुओ से बड़ा लगाव था। उसके भाई- बन्ध सभा मे बैठे हुक्के का कश खींचते रहते थे और नित्य राज -काज की बातें किया करते थे।उसने अपनी एक पुत्री का विवाह जसवंत सिंह प्रथम जोधपुर से किया और दूसरी का बीकानेर के राजा अनूप सिंह से किया जो खुद बीकानेर के कवि, लेखक और पुस्तकप्रेमी राजा के रूप में विख्यात हुए। बीकानेर में अनूप पुस्तकालय उनकी ही देन है जहां विलियम टेसीटोरी ने सारी किताबे पढ़ डाली थी।
राजा वरसिंहदेव का व्यायाम और कुश्ती में भी झुकाव था और रामायण भागवत और महाभारत भी अपने विद्वानों से सुनता रहता था जो इस दोहे(केसरीसिंह समर ) से पता चलता है-

"साध्यो प्राणायाम जिन,सुनी भागोत सुधर्म।
किती बार भारत सुन्यो,किये सभी जिगी कर्म।।"
#क्रमशः

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