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ग्यारवीं के इश्क़ की क्या कहूँ,
लाजवाब था वो भी जमाना,
इसके बादशाह थे हम लेकिन,
रानी का दिल था शायद अनजाना।
सुबह आते थे क्लासरूम में,
हसरत थी पास बैठने की,
पर वो मोटा भी क्या अजीब था,
दो पन्ने पढ़कर, पास उसके बैठ जाता था।
अजी, बैठ भी क्या जाता था,
हमे तो हिलने तक नही देता था,
रुतबा था क्योंकि कक्षा प्रधान जो था,
लेकिन हमसे भी वो बड़ा परेशान था,
पढ़ते हम भी थे केमिस्ट्री उसकी ही तरह,
बस हमारी में थोड़ा मीठा सोडा जो था,
वो नमक की तरह बना देता था क्लासरूम को,
प्यार की पिंगो को लवणों से बचा जो रखा था।
अजीबोगरीब हालत थी उस वक्त,
कोई भी नही बताता था इसका हल।
और बाकी तो सब ठीक था,लेकिन
मास्टर जी बस कहते थे हमें इंग्रेजी में डल।
ख्वाइश तो थी परोस दुं उसे आज,
लंचबॉक्स के साथ,सारी पिछली बातें।
पर डर था कही कह न दे ये मास्टर जी को,
जो हमने फेंके थे उसकी ओर सत्ते पे सत्ते।
जवां उम्र थी, सपने भी बड़े हसीन थे,
क्या पता हकीकत भी कुछ और सकती थी,
डाले थे फूल तो हमने भी कॉपी में,
पर बैरन खोलेगी नही, हमे ये बात कहाँ जचती थी।
ये ग्यारवीं का इश्क़ था जनाब,
लिखे थे जी तोड़, जो शब्द उस पहले प्रेम-पत्र में,
बस वही दबे के दबे रह गए ,
और बारवीं तक आते- आते हम कही और,
और वो किसी और के हो गए।
आनन्द
इंजीनियर की कलम से