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मंगलवार, 24 अगस्त 2021

हरावल

                          हरावल





कहते है कि महाराणा प्रताप एक ऐसे योद्धा थे जिनके शोक समाचार सुनकर अकबर भी रो पड़ा था।

मेवाड़ के महाराणा अमरसिंह की सेना में ,विशेष पराक्रमी होने के कारण "चुण्डावत" खांप के वीरों को ही "हरावल"(युद्ध भूमि में अग्रिम पंक्ति) में रहने का गौरव प्राप्त था व वे उसे अपना अधिकार समझते थे | 
किन्तु "शक्तावत" खांप के वीर राजपूत भी कम पराक्रमी नहीं थे | उनके हृदय में भी यह अरमान जागृत हुआ कि युद्ध क्षेत्र में मृत्यु से पहला मुकाबला हमारा होना चाहिए | अपनी इस महत्वाकांक्षा को महाराणा अमरसिंह के समक्ष रखते हुए शक्तावत वीरों ने कहा कि हम चुंडावतों से त्याग,बलिदान व शौर्य में किसी भी प्रकार कम नहीं है | 
अत: हरावल में रहने का अधिकार हमें मिलना चाहिए |


मृत्यु से पाणिग्रहण होने वाली इस अदभूत प्रतिस्पर्धा को देखकर महाराणा धर्म-संकट में पड़ गए | किस पक्ष को अधिक पराक्रमी मानकर हरावल में रहने का अधिकार दिया जाय ? इसका निर्णय करने के लिए उन्होंने एक कसौटी तय की ,जिसके अनुसार यह निश्चित किया गया कि दोनों दल उन्टाला दुर्ग (जो कि बादशाह जहाँगीर के अधीन था और फतेहपुर का नबाब समस खां वहां का किलेदार था) पर प्रथक-प्रथक दिशा से एक साथ आक्रमण करेंगे व जिस दल का व्यक्ति पहले दुर्ग में प्रवेश करेगा उसे ही हरावल में रहने का अधिकार दिया जायेगा |


बस ! फिर क्या था ? प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए मौत को ललकारते हुए दोनों ही दलों के रण-बांकुरों ने उन्टाला दुर्ग पर आक्रमण कर दिया | शक्तावत वीर दुर्ग के फाटक के पास पहुँच कर उसे तोड़ने का प्रयास करने लगे तो चुंडावत वारों ने समीप ही दुर्ग की दीवार पर कबंध डालकर उस पर चढ़ने का प्रयास शुरू किया | इधर शक्तावतों ने जब दुर्ग के फाटक को तोड़ने के लिए फाटक पर हाथी को टक्कर देने के लिए आगे बढाया तो फाटक में लगे हुए तीक्षण शूलों से सहम कर हाथी पीछे हट गया | 

यह देख शक्तावतों का सरदार बल्लू शक्तावत ,अदभूत बलिदान का उदहारण प्रस्तुत करते हुए फाटक के शूलों पर सीना अड़ाकर खड़ा हो गया व महावत को हाथी से अपने शरीर पर टक्कर दिलाने को कहा जिससे कि हाथी शूलों के भय से पीछे न हटे |

एक बार तो महावत सहम गया ,किन्तु फिर "वीर बल्लू" के मृत्यु से भी भयानक क्रोधपूर्ण आदेश की पालना करते हुए उसने हाथी से टक्कर मारी जिसके परिणामस्वरूप फाटक में लगे हुए शूल वीर बल्लू शक्तावत के सीने में बिंध गए और वह वीर-गति को प्राप्त हो गया | किन्तु उसके साथ ही दुर्ग का फाटक भी टूट गया |

दूसरी और चूंडावतों के सरदार जैतसिंह चुण्डावत ने जब यह देखा कि फाटक टूटने ही वाला है तो उसने पहले दुर्ग में पहुँचने की शर्त जितने के उद्देश्य से अपने साथी को कहा कि "मेरा सिर काटकर दुर्ग की दीवार के ऊपर से दुर्ग के अन्दर फेंक दो | " साथी जब ऐसा करने में सहम गया तो उसने स्वयं अपना मस्तक काटकर दुर्ग में फेंक दिया |
फाटक तोड़कर जैसे ही शक्तावत वीरों के दल ने दुर्ग में प्रवेश किया ,उससे पहले ही चुण्डावत सरदार का कटा मस्तक दुर्ग के अन्दर मौजूद था | इस प्रकार चूंडावतों ने अपना हरावल में रहने का अधिकार अदभूत बलिदान देकर कायम रखा |

बिंधियो_जा_निज_आण_बस_गज_माथै बण मोड़ |
सुरग दुरग परवेस सथ,निज_तन_फाटक तोड़ ||


अपनी आन की खातिर उस वीर ने दुर्ग का फाटक तोड़ने के लिए फाटक पर लगे शूलों से अपना सीना अड़ाकर हाथी से टक्कर दिलवा अपना शरीर शूलों से बिंधवा लिया था और वीर गति को प्राप्त हो गया।इस प्रकार वह वीर गति को प्राप्त होने के साथ ही अपने शरीर से फाटक तोड़ने में सफल हो दुर्ग व स्वर्ग में एक साथ प्रवेश कर गया।

दलबल_धावो_बोलियौ,अब_लग_फाटक__सेस
सिर_फेंक्यो भड़ काट निज,पहलां_दुर्ग_प्रवेस ||


वीरों के दोनों दलों ने दुर्ग पर आक्रमण किया जब चुंडावत दल के सरदार #जैत्रसिंह को पता चला कि दूसरा दल अब फाटक तोड़कर दुर्ग में प्रवेश करने ही वाला है तो उसने आदेश दिया कि उसका सिर काटकर किले में फेंक दिया जाए और अपने वर्चस्व को कायम रखने के लिए उसने अपना खुद का सिर काट कर दुर्ग में फिंकवा दिया ताकि वह उस प्रतिस्पर्धी दल से पहले दुर्ग में प्रवेश कर जाये |

नजर_न_पूगी_उणजग्या_पड्यो_न_गोलो_आय |
पावां_सूं_पेली_घणो_सिर_पडियो_गढ़_जाय ||


जब वीरो के शक्तावत दल ने दुर्ग का फाटक तोड़कर दुर्ग में प्रवेश किया परन्तु जब उनकी दृष्टि किले में पड़ी तो देखा कि किले में उनके पैर व दृष्टि पड़ने पहले ही चुण्डावत सरदार का सिर वहां पड़ा है जबकि उस वीर के सिर से पहले प्रतिस्पर्धी दल का दागा तो कोई गोला भी दुर्ग में नहीं पहुंचा था |

जय_माता_जी_की_सा

टिप्पणी★- इतिहास के एक किस्से को आपके सामने परोसा गया है और यह एक वास्तविक घटना है जो मेवाड़ में महाराणा प्रताप के सुपुत्र अमर सिंह प्रथम के समय की थी जब प्रताप के भाई शक्ति सिंह के वंश ने चुंडावत को हरावल में लड़ने के लिए चुनौती दे डाली थी।

गुरुवार, 25 फ़रवरी 2021

बदला अपमान का

                   अपमान का बदला




कई बार छोटी छोटी बातों के कारण व स्वाभिमान को ठोस लगने के कारण छोटी बड़ी मार काट मच जाती थी।यह बात एक ही जाति और धर्म के लोगो मे भी देखने को मिलती थी। 
बादशाह की सेना में अनेकों धर्मों और जातियों के लोग थे।वीरता का जमाना था अतः आन बान की रक्षा के लिये प्राणों की बलि कर देना साधारण बात थी। जातीय अभिमान की रक्षा सबसे बड़ा धर्म माना जाता था।

बादशाह की सेना में इंद्रभान जोधा नामक एक राठौड़ सरदार था। उसने शेखावाटी के सरदार माधो सिंह के वीर पुत्र सूरजि जी को मार डाला। तब से लाड़खनियो व राठौरों में बैर भाव चलने लगा। इन्द्रभान सूरजी की घोड़ी भी साथ ले गया और उसका नाम शेखावति रख लिया। यह सब बैर को और बढ़ाने वाली बातें थी। लोगों को ये बातें खलती थी मगर बादशाह का सरदार होने के कारण किसी का वश नही चलता था।

एक दिन बादशाही सेना का डेरा परबतसर नामक नागौर के स्थान पर रुका हुआ था। इसमे इंद्रभान भी शामिल था और दूजोद के कुँवर जसवंत सिंह भी अपने 50 आदमियों के साथ शिविर में थे।उस समय जसवंत सिंह की वीरता के बहुत किस्से प्रचलित थे।

एक दिन देवराज नामक चारण राजपूतों के डेरे से भेंट पूजा ग्रहण करते हुए इंद्रभान के डेरे पहुँच गया। उस समय जोधा ने चारण की किसी बात पर नाराज होकर उसके सामने ही अपने नौकरों से शेखावटी घोड़ी पर जीन कसने को कहा। चारण ने जोधा को बहुत समझाया कि ऐसी बाते न करे एक सेना में होकर, इससे बैर बढ़ता है। जोधा चारण की बात पर नाराज हुए और बोला कि -जावो, शेखावतों को मुझ चढ़ाई करने का बोल दो।
    
चारण डेरे- डेरे फिरता रहा पर किसी ने उसकी बात नही सुनी। इसी क्रम में वह जसवंत सिंह के डेरे गया और उसने अपने अपमान की बात कही। उसने यह भी कहा कि जोधा को जब तक दंड नही दिया जाएगा वह अन्न जल ग्रहण नही करेगा।
जसवंत सिंह उसी समय अपने वीरों ले साथ जोधा के डेरे गए और हमला किया। थोड़ी सी लड़ाई के बाद ही इंद्रभान मारा गया। घोड़ी लेकर जसवंत सिंग लाड़खानियों के डेरे गए। इस समय तक रात हो गयी थी।उनकी आवाज सुनकर सारे लाडखानी भयभीत हो गए। लेकिन जब द्वार खोला तो घोड़ी सहित जसवंत सिंह को देखा।

सारी बाते सुनकर वे बड़े प्रसन्न हुए। अब उनके बैर का बदला ले लिया गया था। जसवंत सिंह से भी बैर भाव था अब वह भी मिट गया था।
उधर बादशाह भी अपने आदमी की मौत से नाराज तो हुआ पर सारी परिस्थिति पर विचार कर चुप रह गया।

शनिवार, 28 दिसंबर 2019

अधूरे ख्वाब- एक तृप्ति

                                     अधूरे ख़्वाब
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कहते है कि अगर सपने खुली आँखों से देखे जाए और अगले ही पल से जी तोड़ कोशिश उनको पूरा करने के लिये की जाए तो कोई अलौकिक ताकत भी आपका साथ देने लगती है और एक अटूट दृढ़ विश्वास के साथ पूरे भी होने लगते है।
ऋचा ने भी अपनी नई जिंदगी के साथ कुछ सपने देखे थे और मोहित जो कि ऋचा का हमसफर था , वह इन सबसे अनभिज्ञ था कि ऋचा की आकांक्षाए बड़ी थी।

जैसे ही दोनों परिणय सूत्र में बंधे तो एक दूजे के लिए सब कुछ नया जैसा था। धीरे-धीरे जिंदगी शुरू हुई और आगे बढ़ने लगी और दोनों अपने-अपने रोजमर्रा की आपाधापी में व्यस्त रहने लगे। और अब तक दोनों ने 24 बसंत पूरे कर लिए थे।
मोहित को एक छुट्टी मिलती आफिस से और वह उसे अपने बाकी रहे घर के कामों में लगा रहता और रहे भी क्यों न, ग्रामीण परिवेश में पला बढ़ा मोहित एक सरकारी महकमे में बाबू जो था।
और ऋचा काफी पढ़ी लिखी और होशियार लड़की थी ,वह तो बस अपनी गृहस्थी में लीन थी और फिर एक दिन उसे अपने पुराने दिनों की डायरी हाथ लगी और अपलक वह पढ़ने लगीं।
इसमे उसके कुछ सपने जो आज भी धुंधली स्याही में लिखे हुए और साफ दिखाई दे रहे थे। जिन्हें पढ़कर ऋचा एक दम उत्साहित हो गयी लेकिन अगले ही पल वह थोड़ी सी उदास हो गयी और फिर वापस डायरी पढ़ने लगी।
आज उसके जहन में वो सारे लक्ष्य सामने आ गए जो उसने कभी अपने कॉलेज के वक्त देखे थे लेकिन समस्या ये भी थी कि वह कैसे बिना मोहित के पूरे हो सकते थे। और वह तो ठहरी सरल स्वभाव की ।
कैसे मोहित को बताए कि उसे ताजमहल के सामने बीचों-बीच फ़ोटो खिंचवानी है, शिमला की बर्फीली वादियों में मस्ती करनी है ,और कैसे उसे एक लंबी यात्रा पर जाना है ,जहाँ सिर्फ रहेंगे उसके सपने और वो। यह सब करने की उसकी प्रबल इच्छा थी जो अब वापस जागृत हो चुकी थी।

ऐसे चलते- चलते जब एक दिन अचानक वह डायरी मोहित के हाथ लगी और जैसे ही उसने पढ़ी तो वह एक दम अचंभित रह गया। और उसने सोचा कि कैसे भी करके इस साल वह उसके पहले सपने को तो पूरा करके ही दम लेगा।

अगले ही सप्ताह उसके स्कूल में शीतकालीन अवकाश आया उसने भी कुछ छुटियां और अप्लाई कर दी। और घर आकर ऋचा से बोला- क्यों न ऋचा इस बार कही बाहर घूम के आया जाए। देखो न मैं भी इस बार खाली हुँ और बहुत टाइम से में बोर भी हो रहा हूँ। क्या कहती हो-कही चला जाये??
इतने में ऋचा तपाक से बोली-वैसे कितने दिन की छुटियां है आपकी?
और मोहित बोला-दस काफी होंगी।?

अब तो ऋचा की खुशी का ठिकाना ही नही था ,वह मन ही मन सोच रही थी कि इस बार वह अपने एक सपने को तो पूरा कर पाएगी। और अगले ही पल बोल पड़ी- क्यों न शिमला चला जाये वहाँ बर्फ भी खूब मिलेगी और पहाड़ भी।
मोहित पहले तो थोड़ा सोच में पड़ गया लेकिन फिर बोला - ठीक है, रज्जो। ये 10 दिन शिमला के नाम।
अब तो बस ऋचा को छुट्टियों का इन्तजार था और वह बड़े उत्साह से सारे काम करने लगी। एक दिन मोहित की छुटियां भी आ ही गयी और दोनों ने उसकी तैयारी भी शुरू कर दी।
सर्दी के कपड़े और बाकी समान लिए और एक दिन दोनों रवाना हो गए।
शिमला पहुँच कर ऋचा ने बर्फ में काफी मस्तियां की और खूब अच्छी -अच्छी जगहों पर घूमे। घूमते-घूमते एक दिन सूर्यास्त पॉइंट पर बैठे बाते कर ही रहे थे तो ऋचा ने बोला- मोहित , क्यों न हम साल में एक कार्यक्रम घूमने का रखे।
मोहित बोला- बिल्कुल। क्यों नही, एक तो रख ही सकते है। कुछ सोचकर मोहित बोला- ऋचा, तुम्हे और कहाँ-कहाँ घूमना है?
ऋचा बोली- एक एक कर घूम ही लेंगे अब तो।
इतने में मोहित बोला- मेरी एक इच्छा है कि ताजमहल चले अगली बार और उसके सामने एक बड़ी सी फोटो हो हमारी।
ऋचा संदेह से बोली- तुम्हे भी ताजमहल पसंद है?
मोहित- बिल्कुल।
ऋचा- मतलब , हम दोनों को अच्छा लगता है ये?
मोहित- मतलब तुम्हे भी?
ऋचा - हाँ भी, कॉलेज टाइम से सोच रही थी ,लेकिन कभी जाना ही नही हुआ।
मोहित- अगला , पॉइंट वही रखे?
ऋचा- क्यों नही।
मोहित- चलो फिर पक्का, लेकिन ऋचा तुम्हारे और क्या क्या शौक है-?
इतने में ऋचा तो बस रुकने का नाम ही नही ले रही थीं, ऐसे लग रहा था जैसे भगवान ने उसकी इच्छाएं पूछी हो और वो एक एक करके सारी बता दी।
मोहित अब ज्यादा खुश था क्योंकि पहली बार इतने सालों में उसकी अर्धांगिनी ने कोई इच्छाएं उसके सामने रखी थी जो अब बिना मोहित के पूरी नही हो सकती थी।

ऐसे प्लान बनाते बनाते कब दोनों एक दूसरे की बाहों में सो गये पता भी नही चला।
तभी ड्राइवर बोला- साब जी, अंधेरा हो गया , चलते है।
इसी के साथ दोनो सकपका कर उठे और गाड़ी में बैठ कर वहाँ से होटल पहुँचे।
लेकिन मोहित ने अभी तक ऋचा को एहसास तक नही होने दिया कि उसने उसकी डायरी पढ़ी भी है।
इसलिए कहते है कि - कभी -कभी चोरी से किसी के राज जानना भी अच्छा होता है
और कहते है कि- उम्र सफर करती है हर पल, ख्वाब वही रहते है।
दोस्तों, जिंदगी बड़ी छोटी है और सपने ढेर सारे, आज ही से उनको पूरा करने की कोशिश करे।
     
                           - आनन्द शेखावत-





शुक्रवार, 8 नवंबर 2019

प्रेरणा- एक अनोखी कहानी

                   प्रेरणा-एक अनोखी कहानी

                                     

Pic-साभार गूगल

कहते हैं कि अगर किसी को आगे बढ़ना हो और वो किस्मत का इन्तजार किये बिना हाड़तोड़ मेहनत करे तो ऊपरवाले को भी उसे नजरअंदाज करने हक नही होता और वह सब कुछ देना पड़ता है जो उसने चाह रखी हो।
रचित अपनी स्कूल की पढ़ाई पूरी करके शहर के किसी पॉलीटेक्निक कॉलेज में दाखिला ले लिया था और पढ़ने में इतना होशियार कि पिछला विद्यालयी पाठ्यक्रम उसने अव्वल दर्जे से पास किया था।
इसी दरमियान रचित के पिताजी का स्वर्गवास हो गया और रचित पर समस्याओं का पहाड़ ही टूट पड़ा।अब उसकी कोई चाह नही रही थी आगे पढ़ने की। सारी जिम्मेदारियां मानो उसी का मुंह बाएं राह देख रही हो और ऊपर से घर खर्च, छोटी बहन की पढ़ाई भी तो उसे ही अब देखना था।
अतः वह निराश होकर जैसे-तैसे अपने होस्टल की ओर बढ़ रहा था और बहुत दिनों बाद वह होस्टल पहुँचा। सारे मित्र उससे मिलने आये लेकिन सब के सब भी आखिर करे तो क्या करे। रचित को कुछ नही सूझ रहा था और उसके मित्र भी इसे हल करने में नाकामयाब से थे कि रचित की पढ़ाई कैसे आगे बढ़े।
रचित की एक क्लासमेट प्रेरणा थी जो उससे अगले दिन क्लास के वक्त मिली, जब रचित मायूस सा अपनी किताबें समेटकर निकलने की तैयारी में था। उसी वक्त प्रेरणा ने उसे आवाज दी और इशारा करके अपनी ओर बुलाया। रचित आवाज सुनकर सकपका गया क्योंकि पहले कभी किसी लड़की ने उसे ऐसे नही पुकारा था। वह सहमा सा उसके पास गया और दोनों कैंटीन की तरफ चल पड़े।
दोनों ने बाते की और नतीजा अभी कुछ नही था लेकिन समस्या अब प्रेरणा को भी हो गयी थी क्योंकि उसका खुद का संघर्ष कुछ निराला था, वह भी तो आखिर स्कॉलरशिप से पढ़ाई कर रही थी। लेकिन कहते है ना कि जिसके कोहनी के हाड़ को लगी हो, वही उसका असली दर्द जानता है। ऐसा ही कुछ अब प्रेरणा के साथ चल रहा था।
प्रेरणा बहुत ही सरल स्वभाव की लड़की थी और उतनी ही बेबाक और निडर भी। उसके भी जिंदगी में आगे पीछे कोई नही था। माँ बाप का पता नही और वह तो हमेशा अनाथ आश्रम की प्राचार्या को ही माँ समझती थी और उसी को अपना घर भी।
लेकिन अगले ही दिन जब वह कॉलेज आयी तो आते ही उसने रचित को ढूंढना शुरू किया और जब रचित को लाइब्रेरी में पाया तो बिल्कुल उछल पड़ी। और बोली रचित अब तुम्हे उदास होने की कोई जरूरत नही है, मेरे पास तुम्हारे लिए एक आईडिया है।
रचित कुछ समझ पाता उससे पहले ही उसने सारा मास्टर प्लान टेबल पर डाल दिया।उसने रचित को बताया कि उसके आश्रम में कोई बैंक मैनेजर हमेशा कुछ न कुछ बच्चों को बांटने के लिए आते रहते है और उसने रचित की समस्या मैनेजर साब को बताई।
अब बैंक में मैनेजर साब से मिलने की बारी रचित की थी और अगले ही दिन रचित और प्रेरणा बैंक की ब्रांच में मैनेजर साब का इंतजार कर रहे थे। जैसे ही साब आये ,रचित ने प्रणाम किया और दोनों आफिस के अंदर। फिर साब ने रचित की जिज्ञासाओं को भांप कर कुछ देर सोचने के बाद बोले।
रचित तुम्हारा कॉलेज टाइमिंग क्या है।
इतने में तपाक से प्रेरणा बोल पड़ी- सुबह 7 से 12
मैनेजर साब प्रेरणा के उत्साह को देखते हुए मुस्कुरा कर बोले- रचित, मानो अब तुम्हारी प्रॉब्लम का सोलुशन मिल गया।
तुम कॉलेज के बाद 2 बजे से 10 बजे तक मेरे पास आ सकते हो, मेरे पास तुम्हारे लिए एक काम है, जिससे तुम्हारी कॉलेज भी पूरी हो जाएगी और घर की भी चिंता खत्म। तुम्हे 2 बजे से बैंक एटीएम का गॉर्ड बनने में कोई समस्या तो नही?
रचित को भी हाँ बोलते हुए एक सेकंड न लगी और नोकरी फिक्स हो चुकी थी।
अगले ही दिन से रचित की दिनचर्या बदल चुकी थी, और सुबह 5 बजे जगा, हाथ मुँह धोकर, टहलने निकल पड़ा और मन ही मन प्रेरणा का शुक्रिया कैसे अदा करे , यह सोचता हुआ आगे बढ़ रहा था।
फिर वह तैयार होकर कॉलेज गया और रोजमर्रा की तरह जैसे उसके साथ कुछ हुआ ही न हो, वह बिंदास लेक्चर अटेंड कर रहा था, जैसे उसे कुछ प्रॉब्लम ही नही हो।
अब 12 बजे वह होस्टल जाकर खाना खाया और पहुँच गया बैंक की शाखा में। अब तो यह उसकी रोजाना की दिनचर्या में जुड़ गया था। और रात को 10 बजे वापस अपनी साईकल से होस्टल जब तक कि दूसरा गॉर्ड वहाँ नही आ जाता। ऐसे में होस्टल मेस स्टाफ भी रचित का बड़ा ही सहायक साबित हुआ। उसका खाना पैक करके रख दिया जाता और जैसे ही रचित आता, हाथ मुँह धोकर खाना खा लेता।
हाँ, कुछ समस्या तो उसे फिर भी होती थी, लेकिन वह काफी सूझबूझ वाला लड़का था ,जब भी बैंक जाता तो अपने काम की बुक्स और पढ़ने की सामग्री साथ ले जाता और बड़ी आराम से वातानुकूलित केबिन में तसल्ली से पढ़ता। यह कहना भी कोई अतिशयोक्ति नही है कि जब आप किसी काम को सिद्दत से करते है तो ये कायनात भी आपकी सहायक साबित होती है और ऐसा ही रचित के साथ भी हुआ।
ऐसे करते -करते कब दिन बीत गए और पता भी नही चला और एक महीना पूरा हो चुका था । और जिस लग्न से उसने गॉर्ड की ड्यूटी की ,उसी लग्न और उत्साह से मैनेजर साब ने रचित के हाथ मे 6000 का चैक रख दिया और अब तो रचित भी बैंक के बाकी कर्मचारियों का चहेता बन गया था। उसका भी अब एक खाता बैंक में खुल चुका था और या यूं कह लीजिए वह भी बैंक का एक कर्मचारी बन चुका था।
सभी उसे बहुत पसंद भी करने लगे थे क्योंकि उनकी भी रचित हेल्प कर दिया करता था कभी-कभी। अब रचित कोई समस्या नही थी क्योंकि फीस उसकी प्रिंसिपल साब ने माफ कर दी और खाना- रहना होस्टल में था ही। अब जो कुछ बैंक से मिलता वो सब वह घर भेज देता। इससे घर पर भी सब कुछ ठीक चल रहा था और मां का मन भी अब हल्का था क्योंकि छुटकी की भी पढ़ाई गाँव के सरकारी स्कूल में सही चल रही थी।
ऐसे करते -करते कब सेशन खत्म हो गया और रचित और प्रेरणा दोनों कॉलेज से इंजीनियरिंग का डिप्लोमा पूरा कर चुके थे और दोनों का प्लेसमेंट अच्छी कंपनी में हो चुका था और किस्मत की बात यह है कि दोनों अभी भी एक साथ, एक आफिस में काम कर रहे है।
जब भी रचित घर आता तो अब प्रेरणा को घर ले आता था और उसे भी अब रचित की बहन और माँ ,अपना परिवार जैसा लगने लगा था। लेकिन समाज मे ऐसे रिश्ते को हेय दृष्टि से देखा जाता है यह उनको कहाँ पता था ।
लेकिन इस दीवाली रचित की बहन ने एक दम से कह ही दिया था कि - भैया, आप दोनों शादी क्यों नही कर लेते?
और मानो दोनो के चेहरों की हवाइयां उड़ गई थीं सुनते ही।
रचित एकाएक बोल उठा- माँ, ये मेरी अच्छी दोस्त है। ऐसे कैसे हो सकता है।
पर माँ ने बिना वक्त गवाएं, प्रेरणा से ही पूछ लिया- क्या तुम्हें रचित अच्छा लगता है। बस फिर क्या था, प्रेरणा के पास इसका कोई जवाब ही नही था और इसी में उसकी हाँ थी।
इतने में माँ ने रचित को बोला कि- इसे परिवार मिल जाएगा और हमे बहू, क्यों प्रेरणा ?
प्रेरणा शर्म से बस सर झुकाए बैठी थी, अब मांजी को बोले तो भी क्या ? क्योंकि प्रेरणा भी तो शायद मन ही मन यही चाहती थी।
पर जब माँ ने दोनों को समझाया तो दोनों मान गए क्योंकि कितने दिन ऐसे सब चलता और प्रेरणा का तो कोई घर और परिवार भी नही था।
अंततः दोनों ने शादी कर ली और लड़की वालों की तरफ से कन्यादान करने का मौका मिला- बैंक मैनेजर साब को।
यूँ तो मैनेजर साब को एक लड़की है पर अब दो हो चुकी थी।
और पूरे घर और गाँव मे अब खुशी का माहौल था और हो भी क्यों न, आखिर दो इंजीनियर जो शादी कर रहे थे।
और साथ ही आश्रम की प्राचार्या की खुशी का भी कोई ठिकाना नही था, उनकी एक छात्रा जो अब एक जीवन की नई पारी की शुरुआत जो करने जा रही थी। जिससे अन्य बच्चों को भी जीवन मे आगे बढ़ने की प्रेरणा जो मिल रही थी।
प्रेरणा का जैसा नाम था वह तो अब रचित के लिए प्रेरणा बन चुकी थी और दोनों एक साथ माँ और छुटकी के साथ शहर में रह रहे थे और अब तो कंपनी से उन्हें घर भी मिल चुका था । अब चारों की एक बहुत ही संजीदा जिंदगी चल रही थी और छुटकी का दाखिला भी अब उसी शहर के कॉलेज में जो करवा दिया था।
हाँ, लेकिन प्रेरणा की एक आदत आज भी खास है जो रचित को अच्छी भी लगती है और वो ये है कि - अपना जन्मदिन तो वह आज भी उसी अनाथ आश्रम के बच्चों के साथ मनाती है। उनके लिए बहुत सारे तोहफे लेकर जाती है और प्राचार्या के लिए कुछ पैसे भी ,जिनसे आश्रम की कुछ रोजमर्रा की चीज़ें लायी जा सके। और प्रेरणा का आश्रम अब प्रेरणा का मायका भी था जिसमे वह जैसे ही समय मिलता तो वही बीता के आती थी।
प्रेरणा अब रचित के साथ - साथ आश्रम के बच्चों की भी प्रेरणा बन चुकी थी। इसलिए कहते है कि- अगर आप मानवता को कुछ अच्छा देने का प्रयास करते है तो वही से यह दुगुना होकर वापस मिलता है। इसलिए किसी की सहायता करने में कभी पीछे नही हटना चाहिए, जैसा प्रेरणा ने किया और उसे मिला भी।


                         -आनन्द

   
       


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