बुधवार, 22 सितंबर 2021

शेखावाटी का इतिहास भाग-2

शेखाजी का जन्म



फोटो- प्रतीकात्मक


इनके जन्म के पीछे भी एक लंबी कहानी है,
आमेर में राजा सोड़देव की 13 वीं पीढी में जन्मे उदयकर्ण जी वि. सं.1423 में राजा बन गए थे।उनके तीन रानियों से आठ पुत्र पैदा हुए। जिसमे बालाजी भी एक थे।
आमेर के राजा उदयकर्ण जी के तेजस्वी पुत्रों से ही कच्छावा वंश की तीन शक्ति सम्पन्न शाखाओं  का विकास हुआ- नरुका, राजावत और शेखावत।

राजा उदयकर्ण जी को 12 गावों सहित बरवाड़ा की जागीर प्रदान की गई। (जैसा  कि किसी एक पुत्र को राजा और बाकी को छोटी जागिर देकर सत्ता कायम की जाती थी) आमेर के उत्तर में 30 मील दूरी पर सामोद के पास बरवाड़ा बसा हुआ है। राव बालाजी जो इनके पुत्र थे बचपन से घोड़ो के शौकीन, अश्व विद्या के ज्ञाता बन गए।वह समय भी हाथियों,घोड़ों और पैदल सैनिकों का था।उस समय बालाजी प्रति वर्ष दशहरे पर आमेर जाते और उत्तम नस्ल के तैयार घोड़े आमेर के राजा को भेंट करते थे।

धीरे- धीरे अश्व देने की भेंट को आमेर ने प्रथा ही बना लिया था जो आगे जाकर कर के रूप में स्थायी समस्या बन गयी। बालाजी इस प्रथा का सहर्ष पालन किया करते थे। वे केवल घुड़सवार थे और घोड़ो की जाति नस्ल और गुण- अवगुण पहचानते थे।

घोड़ो में रुचि के चलते ही अपनी जागिर का सारा काम अपने पुत्र मोकल जी को सौंप रखा था। उन्होंने अपना सारा जीवन घोड़ों को पालने में ही व्यतीत किया और आमेर रियासत ने उनके इस गुण का भरपूर फायदा भी उठाया।

बालाजी के दो रानियों से कुल 12 पुत्र थे और मोकल जी को उन्होंने सत्ता सौंप कर परलोक सिधार गए।

#मोकल_जी
अपने पिता के बाद गद्दी पर मोकल जी बैठे।उस ताजपोशी के लिए आमेर के राजा बनवीर जी बरवाड़ा पधारे और उन्होंने तिलक और पाग का दस्तूर किया।

बरवाड़ा से 12 मील दूर नाण गांव था जो बरसाती नालों की वजह से खेती योग्य न होकर घोड़ो के चारागाह हेतु उपयुक्त भूमि थी, उन्होंने डहेलिया राजपूतों से नाण गाँव पर कब्जा कर लिया। यह नाण आज के अजीतगढ़ के पास बसा हुआ गाँव है।

अपने पिता की तरह मोकल जी भी सरल ह्रदय और घोड़ो के पालनहार थे।इसके बाद इन्होंने कोई गाँव या राज्य पर कब्जा नही किया और न ही अतिक्रमण और बरवाड़ा को भी लगभग त्याग चूके थे।

अब घोड़ो को रखने हेतु कोई उपयुक्त जगह वो खोज रहे थे, जो नाण से 4 मील दूरी पर सल्हे पर्वत पर जगह साफ कर ठाण बनाये गए। वह जगह आज भी #घोड़ा_खुर्रा के नाम से प्रसिद्ध है।

लेकिन मोकल जी को एक दुख हमेशा से सता रहा था उनकी बढ़ती उम्र में भी कोई औलाद नही थी। एक दिन त्रिवेणी नदी के पर्व पर एक साधु संतों की मंडली आयी हुई थी,उनके श्रेष्ठ गुरु महाराज को मोकल जी ने अपनी व्यथा सुनाई, और सारा हाल सुनकर महात्मा ने उन्हें वृन्दावन जाने का परामर्श दिया।

मोकल जी वृन्दावन गए और गिरिराज की परिक्रमा पूरी की। अंत मे एक महात्मा ने उन्हें गौ सेवा व्रत धारण करने का उपदेश दिया। उन्होंने मोकल जी को गोपीनाथ जी की मूर्ति और मन्त्र दीक्षा दी। उंसके बाद ही शेखावतों में गोपीनाथ जी की सेवा का प्रचलन हुआ। इससे पूर्व के राजा शैव मतावलम्बी थे।
इसके साथ ही मोकल जी गायों के झुंड के साथ एक साधारण ग्वाले की तरह जीवन यापन करने लगे। अब देखने लायक दृश्य ये था कि घोड़ा खुर्रा से नाण गाँव तक घोड़े और गाये साथ चरती थी और मोकल जी उनके पीछे- पीछे कन्हैया की तरह विचरण करते थे।
आज भी शेखावत सरदार जब मिलते है तो आपस मे "जय गोपीनाथ जी की" अभिवादन स्वरूप करते है।🙏
#क्रमशः
#फोटो_ प्रतीकात्मक

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