बुधवार, 7 सितंबर 2022

खंडेला का इतिहास भाग -20

राजा केसरी सिंह और हरिपुरा का युद्ध




गतांक से आगे-
जब केसरीसिंह कर नही दे रहै थे तो औरंगजेब ने नवाब अब्दुल्ला खाँ को केशरीसिंह से कर वसूलने भेजा और कहलवाया कि या तो केसरीसिंह कर दे या फिर सशाही सेवा स्वीकार कर ले। इधर केसरीसिंह तो पहले से ही मुगलो से लोहा लेने का दृढ़ निश्चय कर रखा था।

जब केसरीसिंह ने कोई शर्त नही मानी तो अब्दुल्ला खाँ उसे दण्डित करने हेतु टोडा से साम्भर आया और खण्डेला की तरफ बढ़ने लगा। अब बादशाह की सेना से लड़कर उसे मात देना भी टेढ़ी खीर था। लेकिन फिर भी केशरीसिंह ने सेना इक्कठी की और अपने समस्त भाई बांधवो को रण निमंत्रण दिया। शेखावतों की अधिकांश शाखाओं के वीर योद्धा अपने-अपने ठिकानों से चलकर केसरीसिंह के पीत ध्वज के निचे युद्ध करने खण्डेला आ रहे थे।केसरीसिंह ने खण्डेला से 12 कोस दूर सामेर गाँव मे पड़ाव डाला,यह गाँव देवली के पास है। कासली का राव जगतसिंह त्रिमलरवोत अपने लड़ाकों और भाइयों के साथ खेड़ लेकर इस पड़ाव पर पहुँचा।

वही पर आपस मे बिचार-विमर्श हुआ कि आक्रांता शाही सेना से युद्ध किया जाए या समझौता किया जाए।केसरीसिंह के हितैषी परामर्शदाताओं ने उसे समझाया कि अगर युद्ध का मन कर ही लिया है तो क्यों न छापामार युद्ध किया जाए ताकि इसे दीर्घकाल तक जारी रखा जा सके। लेकिन केसरीसिंह ने तो क्षत्रियों की भांति खुले मैदान में युद्ध लड़ना निश्चित किया। जीवन के प्रति अब उसका मोह नही रहा था क्योंकि बताया जाता है कि अपने भाई की मौत के बाद वह पूर्णतः टूट चुका था अब उसे सिर्फ जीने से मरणा वो भी युद्ध मे , ज्यादा अच्छा लगता था। अब्दुल्ला खाँ की सेना को खण्डेला तक पहुचने का मौका केसरीसिंह ने दिया ही नही और खुद सामने पड़ाव डालकर बैठा था।उसने अपने मारका भाई बांधवो के साथ हरिपुरा गाँव के पास आगे बढ़कर आक्रमण किया। "केसरीसिंह समर"के लेखक इस शौर्य को अपने आंखों से देखा और इसे काव्य रूप में शब्दित किया।

तत्कालीन अमरसर परगने के गाँव देवली और हरिपुरा के बीच के मैदान में विक्रमी 1754 में यह रक्त रंजित युद्ध लड़ा गया जो इतिहास में "हरिपुरा के युद्ध" नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस युद्ध मे राजा केसरीसिंह वीरगति को प्राप्त हुआ। 
केसरीसिंह समर में लिखा है कि- महाराव शेखा के वंशज शेखा की तरह ही सूबेदार अब्दुल्ला से लड़ते हुए घायल होकर युद्ध भूमि में गिर पड़े और उनके शरीर से रक्त धाराएं बह रही थी व काफी देर बाद जब होश आया तो उन्होंने धरती माता को अपना रक्त पिंड देने हेतु अपना हाथ बढ़ाया और युद्ध भूमि से कुछ मिट्टी ले उसमे अपना रक्त मिलाने के लिए घावों को दबाया और रक्त निकालने की असफल चेस्टा करने लगे किंतु रक्त तो सारा बह चुका था।यह सब देखकर अपनी तलवार से वो खुद के शरीर के मांस का टुकडा निकाल  लिया लेकिन फिर भी रक्त नही। यह देखकर समीप ही घायल पड़े  उनके काका अलोदा के ठाकुर मोहकम सिंह ने पूछा-ये क्या कर रहे हो? तब केसरीसिंह बोले- मैं धरती माता को रक्त पिंड अर्पित करना चाहता हूं।यह सुनकर  मोहकम सिंह ने कहा- आपके शरीर मे नही तो क्या हुआ,मेरे शरीर मे तो है। आपकी और मेरी धमनियों में एक ही रक्त बह रहा है ,लीजिए यह कहकर अपने शरीर से रक्त निकाल कर उसमें मिला दिया,जिनके पिंड बनाते-बनाते ही केसरीसिंह ने रण-भूमि में देह त्याग दी। "सीकर का इतिहास" में बताया जाता है कि जब केसरी धराशयी हुए तो कुल 70 घाव उनके शरीर पर थे।

हरिपुरा के युद्ध मे राजा केसरीसिंह के ध्वज के निचे युद्ध लड़ते-लड़ते 200 से अधिक शूरमाओं ने वीरगति प्राप्त की।केसरीसिंह के अनुसार टकनेत, मिलकपुरिया, उग्रसेन, गोपाल का, लाडखानी, रावजी का,भोजराज जी का,हरिराम का, परसराम का आदि शेखा वंशजो ने युद्ध वीरता से लड़ा। युद्ध का परिणाम अपने विपरीत जाते देख केसरीसिंह ने अपने विमातृ भाई उदय सिंह को त्वरित गति से खण्डेला जाने को और गढ़ की सुरक्षा अपने हाथ मे लेने को कहा। उस समय खुद उदय सिंह घायल अवस्था मे थे और खुद से खण्डेला पहुँचने की स्थिति में नही थे और फिर खण्डेला जाते हुए उदय सिंह के मार्ग में मारे जाने या बन्दी बना लिए जाने का खतरा भी बना हुआ था।युद्ध मैदान से थोड़ी दूर पर राजपुरा,जाटों की ढाणी थी। वहां के चौधरी ने साहस जुटाकर उदय सिंह को खण्डेला पहुचाने का बीड़ा उठाया। अपने तेज -तर्राट बैलों को शगड़ में जोतकर वह चौधरी रात में रवाना हुआ और सूर्योदय पूर्व ही उदय सिंह को खण्डेला पहुँचा दिया।आज भी यह कथा जाट वंश अपने पीढ़ियों को गर्व से सुनाते है।
#क्रमशः

गुरुवार, 28 जुलाई 2022

काळा कागला (काग देवता)

 काळा कागला




मेहनत की रोटी म,
मजा आव र लाडला।
जे कर दी चार सौ बिसी,
तो सब माया न ले जाय कागला।।

इयाँ तो देखा बाट बिकी,
क छत प आव कणा कागला।
अर जे बुलाना पड़े पावणा,
फेर ओजू उडावा कागला।।

जे ओल्यू आव पीव की,
तो हिवड़ा क पँख लगाव कागला।
अर जै करदे बीठ घरा म,
दुखड़ो रोव पाड़ोसी आगला।।

खीर पूड़ी को जीमण जिमावे,
जद तु ले आव संबंधी म्हारा पाछला।
कुदरत का त्यौहार बनाया सगळा,
जद काग कहाव कागला।।

जीबा म कोई जीबो है जो,
हर कदम काम आव कागला।
अर मिश्री सु मीठी बोली कोयल की,
फेर भी म्हे उड़ावा काळा कागला।।
        
                                                 -आनंद "आशतीत"

शनिवार, 23 जुलाई 2022

मन की हस्ती

मन की हस्ती

खुश हुँ  मैं अब मेरी हस्ती मे,

गैरों से न कोई मतलब  मेरा।

बहते बहते समय की धारा में,

यहां तक पहुँचा है कारवाँ मेरा।।


हर हाल में खुश रहता हूं क्योंकि

दूसरों के हालात, बखूबी समझता हूं।

करने वाले वादे ऊंचे-ऊंचे, कब के गुजर गए,

मेरी हस्ती जिंदा है क्यूकी आज में जीता मरता हूँ।।


कहने वाले लोग है कहाँ जो,

हर चीज को अपनी बतलाते थे।

जीते जी कर न सके वक्त को अपना,

जो बस आगे की डींगे हांका करतें थे।।


कल का फिक्र करे वो जो,

आज में मेहनत न करता हो।

करता भी आखिर क्या जब,

अनहोनी से जो डरता हो।।


भाग्य भरोसे बैठा न कभी,

शायद भाग्य खुद मेरे भरोसे रहता हो।

मिलता तो है सुकून उन्हे,

जो मेहनत मे भरोसा करतें हो।।

                                         - आनंद "आशतीत"

रविवार, 17 जुलाई 2022

बेला बारिश की

बारिश की बेला





बेला बारिश की जब भी आती,
बेचैन पड़े मन को हरसाती।
खाली पड़ा था जो खलिहर कौना,
उनमे अब उन्माद की हंसी लहलाती ।।

आ जाये कभी सर्दी में भी,
तो मावठ कहलाती,
ठिठुरन तो वैसे भी ज्यादा होती,
जब साहूकार की बही सताती।।

आना था इसको तो ऐसे क्यूँ था आना,
जिसके आने से उम्मीदों को पड़ा दफनाना।
लाया था जो ऋण कुछ सालों में,
आखिर उसको भी तो था सूद समेत चुकाना।।

ऐसे तो पलकें मेरी,
थक जाती थी इसकी बाट में,
आती अगर वेला पर तो,
मेरी हस्ती रहती ठाट में।

पाले थे बैल नही, थे ये अरमान मेरे,
पर क्या करूँ जब,सोए है भाग्य मेरे।
फिर भी मेहनत रात दिन मैं करता हूँ,
ताकि जीवन मे हो मेरे उज्जवल सवेरे।।

अब जब ये आयी है तो आफत की बिरखा लायी है,
डाले थे जो स्वछंद बीज सपनो के,उनकी शामत आयी है।
हर चीज पर मेरा जोर कहाँ,बस इसकी अपनी मनमानी है,
भले बहे खूब पसीना, अभी हार कहाँ मैने मानी है।।

आखिर नवांकुर के उजाले को आना ही होगा,
हर कृषक का संताप मिटाना होगा।
आयगी उसके भी चेहरे की रौनक जब,
खेतों में हर तरफ सोना ही सोना होगा।।

                                      - आनन्द "आशातीत"





शुक्रवार, 8 जुलाई 2022

खण्डेला का इतिहास भाग-19

खण्डेला राज्य का बंटवारा और राजा केसरी सिंह



गतांक से आगे-
बहादुर सिंह खण्डेला की मौत के बाद खण्डेला की राजगद्दी पर उनका ज्येष्ठ पुत्र केसरी सिंह विक्रमी 1740 में बैठा। इनके दो छोटे भाई भी थे जिनका नाम उदय सिंह और फतेह सिंह था।जिसमे फतेह सिंह इनके सहोदर भाई थे। और उदय सिंह ,बहादुर सिंह की दूसरी रानी के पुत्र थे। उस समय औरंगजेब दक्षिण में औरंगाबाद में छावनी जमाये बैठा था। केसरी सिंह ने खण्डेला में हुए नुकसान को देखते हुए बादशाह औरंगजेब से वापस सुलह कर ली और उसे गोलकुंडा किला जीतने के लिए भेज दिया गया। वहां वह अनेक आक्रमणों का बखूबी सामना किया लेकिन धर्मविरोधी औरंगजेब से ज्यादा बना न सका और रूष्ट होकर वह भी खण्डेला आ गया। खण्डेला आकर वह नारनोल और अजमेर के शाही ठिकानों को दबाने लगा।

"लख-लख दल दिखणी के,भिर भजे बहुवार।
पुर आये केसरी नृपति, करी न सार सम्भार।।"

इनके समय प्रसिद्ध "जाट विद्रोह" हुआ जो कि उग्र आंदोलन का रूप ले चुका था।सारे जाट औरंगजेब के बहुत सारे सिपहसालार सहित टुकड़ियों को मौत के घाट उतार दिया था।मुगल सेना से लड़ते हुए जब गोकुल जाट मारा गया तो जाट राजाराम ने नेतृत्व अपने हाथ मे लिया।उसने खालसा क्षेत्र के गाँवो को लूटा और दिल्ली से आगरा रास्तो को असुरक्षित बना दिया। जो भी मुगल सेनापति उसे दंड देने आते सबको वह मौत के घाट उतार देता।उसने आगरा के समीप अकबर के भव्य व विशाल मकबरे को तोड़ फोड़ कर वहाँ सज्जित साजो सामान लूट लिया। कब्रो को खोदकर अकबर और जहाँगीर के अवशेषों को अग्नि को समर्पित कर दिया।

"डाही मसती बसती करी,खोद कबर करि खड्ड।
अकबर अरु जहाँगीर के, गाढ़े कढ़ी हड्ड।।"

यह दोहा "केसरीसिंह समर" में मिलता है जो किताब उस समय के समकालीन खण्डेला निवासी "कुलोदभव पारीक हरिनाम उपाध्याय" द्वारा लिखी गयी इसे सही मानने का कारण यह भी है वह लेखक उस वक्त मौजूद था और "हरिपुरा युद्ध" का साक्षी भी रहा। इनकी छंद शास्त्र में गहरी रुचि थी तो लगभग किताब खण्डेला के इतिहास को उन्होंने दोहा और छंद में वर्णित किया है।
यह राजा केसरी सिंह के समकालीन होने के कारण अन्य स्त्रोत एकत्रित करते हुए पीछे का खण्डेला इतिहास भी लिखा।

इधर राजा केसरीसिंह से मुगलो का विद्रोह चला आ रहा था। जाटों के विद्रोह में "खोहरी का युद्ध"लड़ा गया जिसमें इनके छोटे भाइयों ने बड़े पराक्रम से युद्ध लड़ा और जाटों का दमन किया । इस युद्ध के बाद केसरीसिंह के लघुभ्राता फतेह सिंह का प्रभाव बढ़ने लगा था और वह मुगलो के सम्पर्क में भी थे। कुछ इतिहासकार मानते है कि जीत की खुशी में उनको मुगलो द्वारा एक तलवार भी भेंट की गई थी।

मनोहरपुर के राव जगत सिंह औरंगजेब के करीबी बने हुए थे और वे राजा रायसल के पुत्रों के यश को खत्म करने के अनेक मौके ढूंढते रहते थे और चाहते थे कि इनकी शक्ति कमजोर हो जाये। राव जगत सिंह मनोहरपुर ने अनुभवहीन फतेह सिंह को विश्वास में लेकर उसे राजा बनने को कहा और कहा कि वह भी बहादुर सिंह का पुत्र है ,खोहरी के युद्ध के बाद मुगल भी उनके प्रशंसक बन गए है। अतः उन्हें खण्डेला के राज्य का विभाजन करा लेना चाइये।

अंत मे मनोहरपुर के राव जगत सिंह ने नारनोल के शाही फौजदार को साथ लेकर खण्डेला राज्य का विभाजन करवा दिया जिसे केशरीसिंह चाहकर भी नही रोक पाए।
केसरीसिंह समर में लिखा है-

"फतेसिंह मधि सूर सूं अवनी लयी बटाय।"

सीकर के माधोवंश प्रकाश नामक अप्रकाशित ग्रन्थ से पता चलता है कि खण्डेला की तत्कालीन राजमाता गौड़ जी की इच्छा से खण्डेला के दो टुकड़े किये गए। अपने दोनों पुत्रों में राज्याधिकार के विवाद को होता देखकर उन्होंने बटवारा ही श्रेयस्कर समझा। गौड़ जी ने खण्डेला के पांच भाग करके तीन भाग बड़े पुत्र केसरीसिंह को और दो भाग फतेह सिंह जी को दिए।

लेकिन राज्य विभाजन के बाद दोनों भाइयों शत्रुता कम होने की बजाय बढ़ती चली गयी।फतेह सिंह खण्डेला त्यागकर खाटू में रहने लगे और कहते है कि केसरीसिंह भी खण्डेला न रहकर कांवट में ही रहे। वहाँ औरंगजेब ने नया सेनापति नियुक्त कर दिया था और खण्डेला को वार्षिक कर उसे देना पड़ता था जिसे केसरी सिंह ने कभी नही दिया।
इसी दौरान राजा फतेह सिंह और मनोहर पुर के राव ने केसरी सिंह के खिलाफ फौजदार को बहकाया भी था। इस सब मे फतेह को शाही फौजदार के साथ देखकर केसरीसिंह ने अपने छोटे भाई फतेह सिंह को रास्ते से हटाने का मन बना लिया था। खाटू में केसरीसिंह के संकेत पर बख्सिराम ने फतेह सिंह को मार दिया।

कर्नल टॉड ने लिखा है कि उसी समय केसरीसिंह ने बख्शीराम को मार कर घटना के सत्य पक्ष को छुपा लिया। इसके बाद हमेशा के लिए खण्डेला दो भागों में बंट गया -
छोटा पाना - फतेह सिंह
बड़ा पाना- केसरीसिंह
#क्रमशः

शुक्रवार, 8 अप्रैल 2022

खण्डेला का इतिहास भाग-18

औरंगजेब का खण्डेला पर दूसरा आक्रमण




गतांक से आगे-
8 मार्च 1679 को बादशाह औरंगजेब की आज्ञा से एक विशाल मुग़लवाहिनी इस बार दिल्ली से खण्डेला के लिए निकल पड़ी जिसमे तोपखाना तथा हस्तिसेना भी शामिल थे। सेनापति दराब खां के नेतृत्व में इस बार खण्डेला के विरुद्ध औरंगजेब की सेना आयी।उनका मुख्य मकसद हिन्दू और उदण्ड राजपूतो को दंड के साथ-साथ इनकी धार्मिक आस्था के टुकड़े-टुकड़े करना भी था। नवाब कारतलब खान और सिद्धि बिहराम खाँ जैसे अनुभवी सेनापति खण्डेला के पहले युद्ध मे पराजित होकर भाग गए थे।

"कारतलब-बिहरामखा, अरु दराब खाँ नाम।
चढ़े खण्डेला ऊपरे, ढाहन को हरिधाम।।"
(केसरीसिंह समर)

इस तोपखाने वाली सेना का सामना करना खण्डेला के लिए दुष्कर कार्य था।अपने सलाहकारों की सलाह से राजा बहादुर सिंह दुर्गम पर्वतों से आवृत कोटसकराय के गिरी दुर्ग में चले गए और मुगल सेना को छापामार युद्ध मे शिकस्त देने की योजना बनाई।चार वर्ष पूर्व उदयपुर के ठाकुर टोडरमल भोजराजोत के पुत्र जुझार सिंह ने भी इसी कारतलब खाँ को इसी पहाड़ी में उलझाकर हराया था।

नारनोल के शाही सेना की आने की खबर सुनकर खण्डेला की जनता भी अपने घर-बार छोड़कर आस पास के गाँवो में शरण लेने चले गए। एक बार तो खण्डेला जनविहीन हो गया था परन्तु शीघ्र ही देव मन्दिरो की रक्षा हेतु रायसलोत शेखावतों का हुजूम खण्डेला पहुचने लगा था। हरिराम जी का, परसराम जी का, लाडानी, भोजाणी, गिरधर का,आदि शाखाओं के योद्धा खण्डेला में डेरा जमाने लगे।

कासली कस्बे से कुछ कोस दूर सायपुरा गाँव स्थित है वहां पर उस वक्त ठाकुर टोडरमल जी भोजराजोत का द्वितीय पुत्र श्याम सिंह अपने नवयुवा वीर पुत्र सुजान सिंह के साथ रहता था। सुजान सिंह मारवाड़ से विवाह करके लौटा तो खण्डेला पर बादशाही आक्रमण की खबर सुनी।कासली के स्वामी बलराम पुरणमलोत (ख़्वासवाल) ने उसे बताया कि तुम्हारी दादीजी द्वारा निर्मित श्री मोहन जी के मंदिर को तोड़ा जा रहा है। खण्डेला के राजाजी बहादुर सिंह भी कोट सकराय के गढ़ में चले गए है।कुछ कर दिखाओ तो मौका है अभी।वीर श्रेष्ठ सुजान सुनकर घोड़े को खण्डेला की तरफ दौड़ाया और पहले अपने पैतृक स्थान उदयपुर(उदयपुरवाटी) पहुँचा। वहाँ पहुचकर भाई बांधवो को साथ लिया और खण्डेला पहुँच गए। वहां मोहन जी के मन्दिर के सामने प्रतिज्ञा ली कि शरीर के रक्त की अंतिम बून्द तक लड़ेंगे, उंसके प्राणांत ही तुर्क उस मंदिर को ढहा सकेंगे।

खण्डेला में देव मन्दिर की रक्षा हेतु बलि देने बाले योद्धाओ की संख्या मुगल इतिहास में 300 से ज्यादा बतायी गयी है और बताया गया है कि उन बहादुर योद्धाओ ने जान झोंककर ऐसा युद्ध लड़ा कि उनमें से एक भी जीवित नही बचा।मासिरवालमगिरी में बताया है कि वो सब मर गए लेकिन किसी ने पीठ नही दिखाई।यह सुजान सिंह महान दानवीर टोडरमल का पौत्र था जिसने अपने दादा की तरह सदा के लिए अपना नाम खण्डेला के इतिहास में लिखा गया। उनके साथ हरिराम रायसलोत का पुत्र हरभान भी था बाकी योद्धाओ के नाम असम्भव है। खण्डेला के राजा तक शाही सेना पहुँची ही नही ,वीर सुजान सिंह ने खण्डेला में ही उस वाहिनी का डटकर सामना किया और लड़ते-लड़ते वीरगति को प्राप्त हो गए।

"झिरमिर झिरमिर मेहा बरसे,मौराँ छतरी छाई।
कुल में छ तो आव सुजाणा,फौज देवरे आयी।।
सुणता पाण आवियो सुजो, पलभर देर न ल्याई।
देवाला पर लड्यो सुरमो, सागे सारा भाई।।
हीर गुजराँ कमरां बांधी,फौजां लूट मचाई।
कोई कूदे कोट खांगरा,कोई कुदया खाई।।
कूद पड्या गुजर का बेटा,नो सौ गाय छुड़ाई।
पाणी की तिसाई गायां, नाड़ा जाय ढुकायी।।
 
यह गीत सुजान सिंह के छावली है जिसमे गाया जाता है। खण्डेला के अलावा खाटू श्याम जी का मंदिर तथा परगने के अन्य मन्दिर भी तोड़े गए थे। सानुला शब्द सांवला का ही बिगड़ा रूप है जिसे पहले खाटू सांवला कहा जाता था, वहां भी युद्ध हुआ था।इसके बाद खण्डेला के राजा हमेशा मुगलो के बिरोधी रहे।यह खण्डेला का युद्ध विक्रमी 1736 में लड़ा गया था। शेखावाटी शिलालेख में खाटू का नाम खटकूप लिखा मिलता है। और विक्रमी 1740 में राजा बहादुर सिंह का देहांत हो गया।उसने अनेक योद्धाओ को गाँव जागिर में भी दिए थे ऐसा उल्लेख मिलता है। और कहा जाता है कि जब औरंगजेब की सेना जीण माता मंदिर को तोड़ने बढ़ी तो उसके मुख्य द्वार के पास पेड़ की सारी मधुमक्खियाँ एक शाही सेना पर धावा बोल देती है और पूरी सेना को छीन-भिन्न कर देती है। औरंगजेब के सेनापति जान छुड़ाकर भाग में जाते है।

राजा बहादुर सिंह की तीन रानिया थी जिसमे एक रानी गौड़ जो शिवराम गौड़ की पुत्री थी उसने खण्डेला में एक बावड़ी का निर्माण भी करवाया।
#क्रमशः

शनिवार, 26 फ़रवरी 2022

खण्डेला का इतिहास भाग-17

औरंगजेब का खण्डेला पर आक्रमण




गतांक से आगे-
जब बहादुर सिंह खण्डेला, बादशाह की अवज्ञा करके खण्डेला आ गए तो बादशाह औरंगजेब नाराज हो गया था।बादशाह ने सारी व्यस्तता और दक्षिण में उलझे रहने के बावजूद एक टुकड़ी सेना की विशेष सिपहसालार के नेतृत्व में खण्डेला भेजी।

खण्डेला पर जब आक्रमण हुआ तो यह सेना फौलाद खाँ के नेतृत्व में भेजी गई। इस फौलाद खां के पास तो नारनोल के सतनामी लोगो से निपटने की ही फुर्सत नही थी और उसने अपने भाई सिद्धि विरहाम खाँ को खण्डेला पर कब्जा करने हेतु भेजा।शाही सेना ने खण्डेला दुर्ग को घेर लिया। उस समय राजा बहादुर सिंह के सेनापति थे-इंद्रभान जो कि हरिराम जी(शेखावत हरीरमोत,जो रायसल के पुत्र हरिराम जी वंशज थे)के वंशज थे। 

शाही सेना ने बड़े जोर-शोर से आक्रमण किया लेकिन उसके अन्य सेनापति ने खण्डेला के सेनापति इंद्रभान को द्वंद युद्ध(अस्त्र के साथ सामने वाले से युद्ध,एक को एक) के लिए ललकारा। इधर इंद्रभान तो बस जैसे इंतजार ही कर रहे थे। थोड़े देर मुगलिया सिपाही के साथ अठखेलियां करने के बाद अर्थात उंसके सारे दाव पेच और तलवारबाजी देखने के बाद इंद्रभान ने मुगलिया सेनापति मीर मन्नू सूर को द्वंद में पछाड़कर लोहे की जंजीरों से बांध दिया। यह सब दृश्य देखकर खण्डेला की सेना में जोश आ गया और देखते ही देखते पूरी मुगलिया सेना के अंग-भंग कर दिया खण्डेला के शूरवीरो ने। बहुत ही विहंगम दृश्य था जिसमे अकेले सेनापति खण्डेला इंद्रभान ने शेखावतों की और खण्डेला की जीत तय कर दी थी। मुगलो की टुकड़ी का मुख्य सेनापति सिद्धि विरहाम खाँ यह देखकर जान बचाकर भाग गया लेकिन खण्डेला की सेना ने उसका 7 कोस तक पीछा किया लेकिन वह तो हवा हो चुका था। इसके सन्दर्भ में "केसरी सिंह समर" में कहा गया है-

"यते भार इंद्रभान भुज,उत्त सीदी विरहाम।
सार धार जूझन लगे, मच्यो भोत संग्राम।।"

इसी दौरान औरंगजेब अपनी धार्मिक कट्टरता के चलते उन विद्रोहों में ही उलझ कर रह गया और खण्डेला पर खुद आक्रमण नही कर सका यद्यपि मथुरा और काशी विश्वनाथ के विशाल और भव्य मन्दिरो को उसने ध्वस्त करवा दिया था। परंतु अभी राजस्थान तक नही बढ़ पाया था क्योंकि मेवाड़ में राजसिंह,आमेर में मिर्जा राजा जयसिंह और जोधपुर में जसवंत सिंह तीन प्रमुख राजा थे। इसी दौरान जय सिंह आमेर की मृत्यु हो गयी और जसवंत सिंह नेदुखी होकर उनकी असामयिक मृत्यु पर फिर इसके बारे में कहा-

"घँट न बाजै देवराँ,संक न माने साह।
येकरसाँ फिर आवज्यो, माहरा जयसाह।।"

इसके बाद औरंगजेब राजस्थान की तरफ रुख कर चुका था। जब विक्रमी 1735 में जमरूद काबुल में जसवंत सिंह का निधन हो गए तो औरंगजेब ने कहा- आज कुफ्र का गढ़ इस्लाम का घर हो गया। परन्तु मरुधरा के लोगो के मन मे जसवंत सिंह के प्रति खूब प्रेम था, जनता कहती है-

"जत्ते जसो पहु जीवियों, थिर रहिया सुरताण।
आँगल ही औरँग सूं, पड़ियो नही पखाण।।"

इसके बाद तो औरंगजेब राजपूताने के पीछे ही पड़ गया था लेकिन दक्षिण के उस खजाने ने उसे घायल कर रखा था।उसने बहुत सारे मन्दिर और देवरे तुड़वा दिए थे। इसी मुहिम में खण्डेला पर दूसरा शाही आक्रमण भी हुआ उसका व्रतांत अगले हिस्से में जानेंगे।
#क्रमशः

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