राजा केसरी सिंह और हरिपुरा का युद्ध
गतांक से आगे-
जब केसरीसिंह कर नही दे रहै थे तो औरंगजेब ने नवाब अब्दुल्ला खाँ को केशरीसिंह से कर वसूलने भेजा और कहलवाया कि या तो केसरीसिंह कर दे या फिर सशाही सेवा स्वीकार कर ले। इधर केसरीसिंह तो पहले से ही मुगलो से लोहा लेने का दृढ़ निश्चय कर रखा था।
जब केसरीसिंह ने कोई शर्त नही मानी तो अब्दुल्ला खाँ उसे दण्डित करने हेतु टोडा से साम्भर आया और खण्डेला की तरफ बढ़ने लगा। अब बादशाह की सेना से लड़कर उसे मात देना भी टेढ़ी खीर था। लेकिन फिर भी केशरीसिंह ने सेना इक्कठी की और अपने समस्त भाई बांधवो को रण निमंत्रण दिया। शेखावतों की अधिकांश शाखाओं के वीर योद्धा अपने-अपने ठिकानों से चलकर केसरीसिंह के पीत ध्वज के निचे युद्ध करने खण्डेला आ रहे थे।केसरीसिंह ने खण्डेला से 12 कोस दूर सामेर गाँव मे पड़ाव डाला,यह गाँव देवली के पास है। कासली का राव जगतसिंह त्रिमलरवोत अपने लड़ाकों और भाइयों के साथ खेड़ लेकर इस पड़ाव पर पहुँचा।
वही पर आपस मे बिचार-विमर्श हुआ कि आक्रांता शाही सेना से युद्ध किया जाए या समझौता किया जाए।केसरीसिंह के हितैषी परामर्शदाताओं ने उसे समझाया कि अगर युद्ध का मन कर ही लिया है तो क्यों न छापामार युद्ध किया जाए ताकि इसे दीर्घकाल तक जारी रखा जा सके। लेकिन केसरीसिंह ने तो क्षत्रियों की भांति खुले मैदान में युद्ध लड़ना निश्चित किया। जीवन के प्रति अब उसका मोह नही रहा था क्योंकि बताया जाता है कि अपने भाई की मौत के बाद वह पूर्णतः टूट चुका था अब उसे सिर्फ जीने से मरणा वो भी युद्ध मे , ज्यादा अच्छा लगता था। अब्दुल्ला खाँ की सेना को खण्डेला तक पहुचने का मौका केसरीसिंह ने दिया ही नही और खुद सामने पड़ाव डालकर बैठा था।उसने अपने मारका भाई बांधवो के साथ हरिपुरा गाँव के पास आगे बढ़कर आक्रमण किया। "केसरीसिंह समर"के लेखक इस शौर्य को अपने आंखों से देखा और इसे काव्य रूप में शब्दित किया।
तत्कालीन अमरसर परगने के गाँव देवली और हरिपुरा के बीच के मैदान में विक्रमी 1754 में यह रक्त रंजित युद्ध लड़ा गया जो इतिहास में "हरिपुरा के युद्ध" नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस युद्ध मे राजा केसरीसिंह वीरगति को प्राप्त हुआ।
केसरीसिंह समर में लिखा है कि- महाराव शेखा के वंशज शेखा की तरह ही सूबेदार अब्दुल्ला से लड़ते हुए घायल होकर युद्ध भूमि में गिर पड़े और उनके शरीर से रक्त धाराएं बह रही थी व काफी देर बाद जब होश आया तो उन्होंने धरती माता को अपना रक्त पिंड देने हेतु अपना हाथ बढ़ाया और युद्ध भूमि से कुछ मिट्टी ले उसमे अपना रक्त मिलाने के लिए घावों को दबाया और रक्त निकालने की असफल चेस्टा करने लगे किंतु रक्त तो सारा बह चुका था।यह सब देखकर अपनी तलवार से वो खुद के शरीर के मांस का टुकडा निकाल लिया लेकिन फिर भी रक्त नही। यह देखकर समीप ही घायल पड़े उनके काका अलोदा के ठाकुर मोहकम सिंह ने पूछा-ये क्या कर रहे हो? तब केसरीसिंह बोले- मैं धरती माता को रक्त पिंड अर्पित करना चाहता हूं।यह सुनकर मोहकम सिंह ने कहा- आपके शरीर मे नही तो क्या हुआ,मेरे शरीर मे तो है। आपकी और मेरी धमनियों में एक ही रक्त बह रहा है ,लीजिए यह कहकर अपने शरीर से रक्त निकाल कर उसमें मिला दिया,जिनके पिंड बनाते-बनाते ही केसरीसिंह ने रण-भूमि में देह त्याग दी। "सीकर का इतिहास" में बताया जाता है कि जब केसरी धराशयी हुए तो कुल 70 घाव उनके शरीर पर थे।
हरिपुरा के युद्ध मे राजा केसरीसिंह के ध्वज के निचे युद्ध लड़ते-लड़ते 200 से अधिक शूरमाओं ने वीरगति प्राप्त की।केसरीसिंह के अनुसार टकनेत, मिलकपुरिया, उग्रसेन, गोपाल का, लाडखानी, रावजी का,भोजराज जी का,हरिराम का, परसराम का आदि शेखा वंशजो ने युद्ध वीरता से लड़ा। युद्ध का परिणाम अपने विपरीत जाते देख केसरीसिंह ने अपने विमातृ भाई उदय सिंह को त्वरित गति से खण्डेला जाने को और गढ़ की सुरक्षा अपने हाथ मे लेने को कहा। उस समय खुद उदय सिंह घायल अवस्था मे थे और खुद से खण्डेला पहुँचने की स्थिति में नही थे और फिर खण्डेला जाते हुए उदय सिंह के मार्ग में मारे जाने या बन्दी बना लिए जाने का खतरा भी बना हुआ था।युद्ध मैदान से थोड़ी दूर पर राजपुरा,जाटों की ढाणी थी। वहां के चौधरी ने साहस जुटाकर उदय सिंह को खण्डेला पहुचाने का बीड़ा उठाया। अपने तेज -तर्राट बैलों को शगड़ में जोतकर वह चौधरी रात में रवाना हुआ और सूर्योदय पूर्व ही उदय सिंह को खण्डेला पहुँचा दिया।आज भी यह कथा जाट वंश अपने पीढ़ियों को गर्व से सुनाते है।
#क्रमशः
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