21 वीं सदी और मैं
जैसे एक तिमिर को हटाने के लिए सूरज को आना पड़ता है,
धरती की सुगबुगाहट मिटाने मेघो को आना पड़ता है।
आना पड़ता है जैसे मयूर को, बरसाती नाच दिखाने को,
उसी तरह इस अल्हड़ मन को भी,जिम्मेदारी का बोझ उठाना पड़ता है।
उठता हुँ जब पांच बजे तो खुद को फिट, मैं रखता हुँ,
निवर्त होकर दिनचर्या से, आजीविका के लिए जाता हुँ।
जब हो जाता है जुगाड़ इसका, तो थक हार कर आता हुँ,
आते ही खाकर दो रोटी ,बिछोने पे पसर जाता हुँ।
खो जाता हुँ पसरकर, आने वाले कल के संघर्ष मे,
बीत गया जो बात गयी वो,जैसा भी था उसके हर्ष मे ।
बस् यही सोचते -सोचते,आँख मेरी लग जाती है
कोयल देती आवाज उठो,फिर नई सुबह हो जाती है
जीवन की इस आपा- धापी मे, वक्त गुजरता जाता है
जीना हो जब खुद के लिए,तब यही प्रश्न उठ आता है
कैसे होगा इस 21 वी सदी मे जीवन यापन,
जब हाथ ही हाथ को निगलता जाता है।
-आनंद
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