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शुक्रवार, 1 जनवरी 2021

आशातीत

 

 

आशातीत हूँ मैं

 




 साल 2020 की बात हुई पुरानी,

जल्दी खत्म हो, शुरू हो एक नई कहानी।

न कोई बीमारी हो, न कोई परेशानी,

फिर चले वही,जो चाहते हम हिंदुस्तानी।


हर कोई यहाँ अपनी ही मस्ती में हो,

बस वैक्सीन यहाँ सबसे सस्ती हो।

जीवन मे कुछ हो न हो,

बस लाखों में हंसती-खेलती हमारी हस्ती हो।


कड़वा है कुछ ये साल, जो हुआ अब पुराना,

आने दो नया भी साल, बदलेगा अब ये जमाना।

फिर होंगे पहले से जज्बात हमारे,

जीवन मे घुलेगा एक नया तराना।


जो न कर सके बीते साल में तो,

अवसर एक और आने वाला है।

कर लो इच्छाएं पूरी अब,

मौका एक और जो मिलने वाला है।


आशातीत हूँ मैं भी कि कुछ नया करता जाऊं,

हर एक पल को अब मै यादों में कैद करता जाऊं।

मिलता रहूं अपनों से, और नजदीकियां बढाता जाऊं,

मगर साल ने सिखाया अभी जो, जेहन में रखता जाऊं।


आशातीत हूँ मैं भी कुछ नया सा करता जाऊं,

अपनों से जुड़कर ,हर पल प्रेम से जीता जाऊं।

-आनन्द

सप्रेम नमस्कार, सभी पाठकों,दोस्तो और बाकी सभी को नववर्ष मुबारक हो, अपनी सभी इच्छाएं पूरी करे प्रभू, और सबको अपने -अपने कर्म पथ पर अग्रसर करे, यही  मंगल-कामना है।

धन्यवाद।



रविवार, 2 अगस्त 2020

एक मजबूत किसान

                  फ़ोटो- गूगल साभार


उठा मस्तक बादलों की तरफ, 
करता अर्जी एक किसान।
कुछ दो या न दो ,पर दे दो, 
बस बारिश रूपी वरदान।।

सूर्योदय में निकलता हूँ घर से,
लिये हाथ मे हल और बैलों की जोड़ी।
मेहनत में न है कोई कमी बस,
मौसम और कालाबाज़ारी ने कमर है तोड़ी।।

सोचो तो मैं सबके लिए अन्न उगाता हूँ,
उसी चक्र में जीता और मरता हूँ।
लोगों को भले न हो फिक्र मेरी,
लेकिन फिर भी मैं लाख कोशिशें करता हूँ।

धोती- अंगौछे में निकला पूरा जीवन,
न मुझे कोई पेंट- कमीज की आस है।
दो रोटी लाता मैं , दो कांदे संग,
झेवन होता यही हमेशा, एक केतली छाछ है।

चिंता सताती हर -पल, साहूकारी ब्याज की,
फसल खराब हो जाए भले ही गेहूं और प्याज़ की।
खरीददार कोई न मिलता,खाद्यान सड़ता जाता है,
आखिर कम कीमत में, सारा बेचना पड़ जाता है।

बच्चें पल -पल मन मसोसकर रह जाते है।
लेकिन फिर मुझसे कुछ न कह पाते है।।
जीवन को सुंदर बनाने की कोशिश में, 
जीवन सारा बीत गया।
मैं जीतूं या न जीतूं, भाग्य मेरा जीत गया।।

                  - आनन्द



शनिवार, 4 अप्रैल 2020

जीवन- विपदा


जीवन-विपदा
Pic- fb


काँटो की पथरीली सी राह है ये जीवन
कहाँ आसान होता है इसे जीना,
है ये एक मझधार फंसी नैया,
बनना पड़ता है यहाँ हर एक को खैवैया।

माना कि यह दलदल लगता है सारा,
पर हर विपदा का होता है एक किनारा,
हे मानव, जानो तुम इसका मर्म को,
और करते रहो अनवरत अपने कर्म को

निज लक्ष्य को रख मस्तक में,
तुम आगे बढ़ते जाओ,
आने वाली एक-एक विपदा को,
 तुम हर बार किनारे करते जाओ।

कोहरे की धुंधली पट्टी सी है बस ये,
इसे आगे बढ़कर ही हटा सकते हो,
और दृढ़ किये अपने लक्ष्य को,
तुम पल में साध्य बना सकते हो।

सप्रेम विनती- सभी भाइयों और बहनों से मेरी मार्मिक विनती है कि देश अभी एक ऐसे ही दौर से गुजर रहा है अतः इसमें जननायक का साथ दे, स्वयं और अपने परिवार के बुजर्गों व बच्चों का ख्याल रखे। घर से बाहर केवल अत्यावश्यक कार्य हेतु ही जाए।
देश के नागरिकों के लिए यह भी एक देश सेवा ही होगी।
धन्यवाद।
-आनन्द

रविवार, 15 मार्च 2020

जीने दो मुझे भी

जीने दो मुझे भी



साभार- गूगल

जीने दो मुझे भी,
अस्तित्त्व है जो मेरा ,खत्म न करो,
कोख में खत्म करने से तो डरो।

कोशिश होगी मेरी कि,

मैं नाम तुम्हारा रोशन कर दूंगी,
जीने की आजादी दो मुझे,
नाम ऊँचा ,आपका कर दूंगी।

विश्वास करो, मैं भी जीना चाहती हूं,

जीवन पथ पर, आगे बढ़ना चाहती हूं,
मुझे मारकर क्यों
पाप के भागी बनते हो,
दो जीवन और ऊंची शिक्षा,
फिर देखो कितने भाग्यशाली बनते हो,

जांच में पाए जाने पर मुझे,

 क्यों तुम इतना  डर जाते हो,
विश्वाश करो मुझ पर,
क्यों इतना कांप जाते हो।

  मेरा उज्जवल भाग्य , 

मैं खुद लेके आउंगी,
साथ मे आपकी भी बंद,
किस्मत चमका जाऊंगी,

मानती हूं कुछ दुश्मन है मेरे,

पर उनका अब क्या मैं करूँ,
लेकिन कुछ अपवादी तत्वों,
से अब आप क्यों डरो?

मुश्किल जीवन में अगर,

आगे आना है,
तो इन सब खतरों से,
डर को दूर भगाना है।

आखिर में, मेरी यही गुहार है,
मुझे पैदा तो करो,
मुझे इस जीवन से बड़ा प्यार है,

ये दुनियां से ना डरो,

ये दुनियां तो बेकार है।
आप तो खुश किस्मत हो,
मिला आपको ये अभिन्न उपहार है।

ऊपर वाला भी उनको देता है ये प्रसाद,।

जिनका हौसला भी खुद होता है फ़ौलाद।।

लेखन- आनंद

विनम्र अपील- 
कृपया बेटियों की भ्रूण हत्या करके, पाप के भागीदार न बने, उनको भी जीवनदान दे, और राष्ट्रहित व मानवता का परिचय दे।



मंगलवार, 1 अक्टूबर 2019

नेताजी, भई नेताजी (बाल कविता)

नेता जी,भई नेताजी


Pic-गूगल साभार

नेताजी भाई नेता जी
कहते इनको नेता जी,
इंसानियत मर गयी इनकी जीते जी,
जितना चाहो रोज खिलाओ,
भरता न इनका पेटा जी,

आता है जब वक्त चुनावों का,
करते ये नौटंकी जी,
जाते सारे गाँव-गाँव और,
करते झूठे कसमें-वादे जी।

जीत जाते जब ये चुनाव ,
समझते खुद को राजा जी,
आते न एक दिन भी जनता में,
करते अपने मन का सोचा जी,

देश का ये बजट बनाते,
खुद का ईमान बेच खाते जी,
बनवा लिए बंगले और मकान विदेशों में,
इनकी जनता भरती खोटे जी,
नेता जी, भई नेता जी।

जब आये बारी पुलिस के पकड़ने की,
कार्यालय में छुप जाते जी,
फिर कोशिश करते 
कानून से सौदेबाजी की,
जब भी न बनती बात तो ये,
कर लेते ये विनती जी,
नेता जी, भाई नेता जी,

औलादें इनकी बैठे- बैठे,
 करोड़पति कहलाती जी,
बाकी जनता चाहे तरसे एक -एक दाने को,
वो ना है इनकी कोई विपदा जी।

खुद न करते कोई काम और मेहनत,
बैठे रहते ठाले जी,
फिर भी आता पैसा और ,
करते रहते घोटाले जी,

नेता जी भाई नेताजी,
सरकार अब बदल गयी और 
जनता को भी समझ आ गया 
काम आपका खोटा जी,
नेता जी भाई ,नेताजी।

-आनन्द-

अपील- यह एक हास्य और व्यंग्य की एक मिली जुली कविता है इसका किसी से व्यक्तिगत भावना को ठेस पहुँचाना नही अपितु समस्त जनता को जागृत करना है। 




रविवार, 1 सितंबर 2019

बचपन का जमाना

बचपन का जमाना

Pic-facebook

याद है मुझे वो बचपन का जमाना
पूरे दिन खेलना और खिलाना,
न फिक्र थी कुछ करने की
बस सोचते थे सिर्फ खेल खिलौनों की

बारिश आते ही नहाने जाते थे,
गीली मिट्टी के घर जो बनाते थे,
क्या पता था एक दिन ये
हकीकत  बन जाएगी,
वही घर असलियत में अब
बनाने की बारी आएगी।

आज भी याद है
वो साथ मे सबके मेले जाना
और जिद्द करके वहाँ से लाया गया खिलौना
अब तो बस यही एक दुनियां थी
जिसमे मैं और मेरी मस्तियां थी,

सुबह उठते ही आंगन में
जो शोर-गुल जो करते थे।
आज खामोश हूँ, सोचता हूँ ,कहाँ गया मेरा
प्यारा सा बचपन,
जिसमे खूब मस्तियां करते थे।

अब तो थोड़े बड़े हुए क्या
स्कूल भी जाना पड़ता था,
समय की पाबंदी फिर भी नही,
लेकिन पढ़ना भी तो पड़ता था,

बेसब्री से रहता है अब तो इंतजार,
की कब आये  प्यारा-सा रविवार,
यह टेलीविज़न का जो था अनुपम त्यौहार,
सुबह होते ही नहा धोकर बैठे जाते थे,
 क्योंकि रंगोली और चित्रहार जो आते थे।

अब तो खुश थे हम सब,
क्योंकि जूनियर जी, जो आने वाला था,
उसके बाद तो शक्तिमान भी बड़ा निराला था,
क्योंकि खत्म होते ही इसके,
कुछ छोटी मगर मोटी बातें
आती थी,
जो रोजमर्रा की अच्छी
बाते सिखलाती थी,

आइसक्रीम की भी
अपनी ही एक कहानी थी
बजती थी दोपहर में जब भी बेल,
आवाज़ बड़ी जानी पहचानी थी,
सुनते ही घर से दौड़े आते थे
पचास पैसे भी जिद करके
लाते थे,
और वो बर्फ का गोला खाकर
भी खुश हो जाते थे,

याद है मुझे वो बचपन का जमाना,
जहाँ न कोई फूटबाल
 और न कोई  क्रिकेट का
था दीवाना,
रोज शाम को आइस-पाइस खेलते थे,
साथ ही पापा की डांट भी झेलते थे,

शाम होते ही खाना खाकर,
दादी के पास सोना,
और उनकी सुनाई कहानी
का कभी खत्म न होना,
छुट्टियां होते ही हम नानी के घर जाते थे,
सुना है अब तो बचपन मे,
बच्चे दादी के घर भी जाते है।

ये दुर्भाग्य ही तो है इस बचपन का,
जिसमे न कोई नानी और न कोई दादी है,
बचपन गया जिसमें न कोई आजादी है,
जिसमे सतोलिया और कंचे बिना खेल कहाँ पूरा है,
तभी तो आज का बचपन अभी अधूरा है।

अपील- बच्चों को अपने बालपन को अच्छे से जीने दे और एक बच्चे के सर्वांगीण विकास में भागीदार बनें और उन्हें अपना बचपन जीने दे, कलात्मक शैली का विकास करते हुए।


  लेखन- आनन्द








सोमवार, 22 अप्रैल 2019

मेरे अरमां

                             मेरे अरमान

                       (प्रकशित- काव्य प्रभा, सांझा काव्य संग्रह)
       {आकर्षण- राब्ता (open mic), जयपुर में लाइव प्रस्तुति}

हैं अरमान मेरे बस इतना सा-
जब भी याद करो तुम मुझको, औऱ पल में हाज़िर हो जाऊं
पल-पल तेरे साथ रहूँ औऱ इन पल में सारी खुशियाँ दे जाऊं

है अरमान मेरे बस इतना सा-
याद करे तू जिस ख़ुशी को, वो पल में तेरी हो जाये
करने वाला तो रब है, पर बस नाम मेरा हो जाये

हैं अरमान मेरे बस इतना सा-
तू सोती रहे बाहों में मेरी, औऱ में उलझी लटें सुलझाता जाऊं
तू बन जाये परछाई  मेरी, और मैं तेरा साया बन जाऊं

है अरमान मेरे बस इतना सा-
तुम बन जाओ राधा और मैं कृष्णा बन जाऊं
जब भी आये तुझपे संकट ,पल में छू मन्तर कर जाऊं

है अरमान मेरे बस इतना सा-
तुम बन जाओ अक्ष मेरा औऱ में मांग का सिंदूर तेरा हो जाऊं
साथ रहूँ तेरे हर पल जैसे-
तेरी बिंदी की चमक बन जाऊं, और
तेरी चूड़ी की खनक बन जाऊं

है अरमान मेरे बस इतना सा-
तुम बन जाओ तलवार मेरी और मैं तेरी सख्त ढाल हो जाऊं,
खड़ा रहूँ साथ तेरे हर दम, तेरे हर दर्द का मरहम बन जाऊं।

है अरमान मेरे बस इतना सा-
तुम बन जाओ राही मंज़िल के
औऱ मैं उस मंज़िल का हमराही बन जाऊं।


                                           -दिल की ख्वाइशें

                                              - आनन्द-

मंगलवार, 26 मार्च 2019

कॉलेज के दिन

                         -कॉलेज के दिन-                          (प्रकाशित-काव्य प्रभा)

याद आती हैं मुझे , कॉलेज की वो हर बातें
दिन में क्लास और हॉस्टल की हसीन रातें,

मैश का वो खाना अब, लगता घर से भी न्यारा था
रहने वाला वहाँ हर कोई भाई से भी प्यारा था,

रीसस होते ही सारे कैंटीन में आते थे
एक दूसरे के टिफिन को , पल में चट कर जाते थे

देकर चकमा टीचर को , कभी-कभी बंक भी कर जाते थे
होस्टल आना कैंसिल करके, मूवी देखने जाते थे,

याद आती है मुझे , कॉलेज की वो हर  बातें
दिन की मस्तियाँ और सुकून भरी रातें,

जैसे-तैसे करके 2 बजे वापस हॉस्टल आते थे,
खाके खाना अब, गहरी नींद में सो जाते थे।

उठाकर बैट शाम को, ग्राउंड पर चले आते थे,
बिना किसी सिग्नल के, सारे वहाँ इक्कठे हो जाते थे,

अँधेरा हुआ, निकलो यहाँ से, कहके  पीटीआई हमपे चिल्लाता था
पर कौन सुने उसकी, जब तक हर कोई थक न जाता था,

बहुत याद आती है मुझे, कॉलेज की वो बातें
दिन की क्लास और वाई- फाई के साथ जागती रातें,

आदतें तो बहुत थी पर, शायद  ये सबसे निराली थी
खेलकर आते ही, संगम पर तैयार स्पेशल चाय की प्याली थी,

बैठकर थड़ी पर चाय पीना, तो बस एक बहाना था
कर लेते थे गुफ्तगू एक दूजे से, वो भी एक जमाना था

थी उम्मीद की पट जाए कोई, इस आस में gt जाते थे
खाकर प्रसाद रोज, बैरंग ही लौट आते थे,

बहुत याद आती है मुझे , कॉलेज की वो बातें,
दिन की नींद और एग्जाम डेज की डरावनी रातें,

असाइन्मेंट कॉपी करना, तो था टैलेंट हमारा,
पर कोशिश थी, बिना कॉपी किये रह न जाए कोई बिचारा।

याद आती है मुझे कॉलेज की वो बातें,
जहां दिन में क्लास और थकान भरी रातें।
                               
                              
                               इंजीनियर की कलम से- आनन्द
                               Memoriable batch _2013-16
                              MBM ENGG. COLLEGE
                              JODHPUR

                

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