शनिवार, 28 दिसंबर 2019

अधूरे ख्वाब- एक तृप्ति

                                     अधूरे ख़्वाब
पिक- fb


कहते है कि अगर सपने खुली आँखों से देखे जाए और अगले ही पल से जी तोड़ कोशिश उनको पूरा करने के लिये की जाए तो कोई अलौकिक ताकत भी आपका साथ देने लगती है और एक अटूट दृढ़ विश्वास के साथ पूरे भी होने लगते है।
ऋचा ने भी अपनी नई जिंदगी के साथ कुछ सपने देखे थे और मोहित जो कि ऋचा का हमसफर था , वह इन सबसे अनभिज्ञ था कि ऋचा की आकांक्षाए बड़ी थी।

जैसे ही दोनों परिणय सूत्र में बंधे तो एक दूजे के लिए सब कुछ नया जैसा था। धीरे-धीरे जिंदगी शुरू हुई और आगे बढ़ने लगी और दोनों अपने-अपने रोजमर्रा की आपाधापी में व्यस्त रहने लगे। और अब तक दोनों ने 24 बसंत पूरे कर लिए थे।
मोहित को एक छुट्टी मिलती आफिस से और वह उसे अपने बाकी रहे घर के कामों में लगा रहता और रहे भी क्यों न, ग्रामीण परिवेश में पला बढ़ा मोहित एक सरकारी महकमे में बाबू जो था।
और ऋचा काफी पढ़ी लिखी और होशियार लड़की थी ,वह तो बस अपनी गृहस्थी में लीन थी और फिर एक दिन उसे अपने पुराने दिनों की डायरी हाथ लगी और अपलक वह पढ़ने लगीं।
इसमे उसके कुछ सपने जो आज भी धुंधली स्याही में लिखे हुए और साफ दिखाई दे रहे थे। जिन्हें पढ़कर ऋचा एक दम उत्साहित हो गयी लेकिन अगले ही पल वह थोड़ी सी उदास हो गयी और फिर वापस डायरी पढ़ने लगी।
आज उसके जहन में वो सारे लक्ष्य सामने आ गए जो उसने कभी अपने कॉलेज के वक्त देखे थे लेकिन समस्या ये भी थी कि वह कैसे बिना मोहित के पूरे हो सकते थे। और वह तो ठहरी सरल स्वभाव की ।
कैसे मोहित को बताए कि उसे ताजमहल के सामने बीचों-बीच फ़ोटो खिंचवानी है, शिमला की बर्फीली वादियों में मस्ती करनी है ,और कैसे उसे एक लंबी यात्रा पर जाना है ,जहाँ सिर्फ रहेंगे उसके सपने और वो। यह सब करने की उसकी प्रबल इच्छा थी जो अब वापस जागृत हो चुकी थी।

ऐसे चलते- चलते जब एक दिन अचानक वह डायरी मोहित के हाथ लगी और जैसे ही उसने पढ़ी तो वह एक दम अचंभित रह गया। और उसने सोचा कि कैसे भी करके इस साल वह उसके पहले सपने को तो पूरा करके ही दम लेगा।

अगले ही सप्ताह उसके स्कूल में शीतकालीन अवकाश आया उसने भी कुछ छुटियां और अप्लाई कर दी। और घर आकर ऋचा से बोला- क्यों न ऋचा इस बार कही बाहर घूम के आया जाए। देखो न मैं भी इस बार खाली हुँ और बहुत टाइम से में बोर भी हो रहा हूँ। क्या कहती हो-कही चला जाये??
इतने में ऋचा तपाक से बोली-वैसे कितने दिन की छुटियां है आपकी?
और मोहित बोला-दस काफी होंगी।?

अब तो ऋचा की खुशी का ठिकाना ही नही था ,वह मन ही मन सोच रही थी कि इस बार वह अपने एक सपने को तो पूरा कर पाएगी। और अगले ही पल बोल पड़ी- क्यों न शिमला चला जाये वहाँ बर्फ भी खूब मिलेगी और पहाड़ भी।
मोहित पहले तो थोड़ा सोच में पड़ गया लेकिन फिर बोला - ठीक है, रज्जो। ये 10 दिन शिमला के नाम।
अब तो बस ऋचा को छुट्टियों का इन्तजार था और वह बड़े उत्साह से सारे काम करने लगी। एक दिन मोहित की छुटियां भी आ ही गयी और दोनों ने उसकी तैयारी भी शुरू कर दी।
सर्दी के कपड़े और बाकी समान लिए और एक दिन दोनों रवाना हो गए।
शिमला पहुँच कर ऋचा ने बर्फ में काफी मस्तियां की और खूब अच्छी -अच्छी जगहों पर घूमे। घूमते-घूमते एक दिन सूर्यास्त पॉइंट पर बैठे बाते कर ही रहे थे तो ऋचा ने बोला- मोहित , क्यों न हम साल में एक कार्यक्रम घूमने का रखे।
मोहित बोला- बिल्कुल। क्यों नही, एक तो रख ही सकते है। कुछ सोचकर मोहित बोला- ऋचा, तुम्हे और कहाँ-कहाँ घूमना है?
ऋचा बोली- एक एक कर घूम ही लेंगे अब तो।
इतने में मोहित बोला- मेरी एक इच्छा है कि ताजमहल चले अगली बार और उसके सामने एक बड़ी सी फोटो हो हमारी।
ऋचा संदेह से बोली- तुम्हे भी ताजमहल पसंद है?
मोहित- बिल्कुल।
ऋचा- मतलब , हम दोनों को अच्छा लगता है ये?
मोहित- मतलब तुम्हे भी?
ऋचा - हाँ भी, कॉलेज टाइम से सोच रही थी ,लेकिन कभी जाना ही नही हुआ।
मोहित- अगला , पॉइंट वही रखे?
ऋचा- क्यों नही।
मोहित- चलो फिर पक्का, लेकिन ऋचा तुम्हारे और क्या क्या शौक है-?
इतने में ऋचा तो बस रुकने का नाम ही नही ले रही थीं, ऐसे लग रहा था जैसे भगवान ने उसकी इच्छाएं पूछी हो और वो एक एक करके सारी बता दी।
मोहित अब ज्यादा खुश था क्योंकि पहली बार इतने सालों में उसकी अर्धांगिनी ने कोई इच्छाएं उसके सामने रखी थी जो अब बिना मोहित के पूरी नही हो सकती थी।

ऐसे प्लान बनाते बनाते कब दोनों एक दूसरे की बाहों में सो गये पता भी नही चला।
तभी ड्राइवर बोला- साब जी, अंधेरा हो गया , चलते है।
इसी के साथ दोनो सकपका कर उठे और गाड़ी में बैठ कर वहाँ से होटल पहुँचे।
लेकिन मोहित ने अभी तक ऋचा को एहसास तक नही होने दिया कि उसने उसकी डायरी पढ़ी भी है।
इसलिए कहते है कि - कभी -कभी चोरी से किसी के राज जानना भी अच्छा होता है
और कहते है कि- उम्र सफर करती है हर पल, ख्वाब वही रहते है।
दोस्तों, जिंदगी बड़ी छोटी है और सपने ढेर सारे, आज ही से उनको पूरा करने की कोशिश करे।
     
                           - आनन्द शेखावत-





सोमवार, 18 नवंबर 2019

खुशनसीब

खुशनसीब


Pic- फेसबुक

उस वक्त मैं कितना,
खुशनसीब था,
जो तेरा दिख जाना,
भी कितना हसीन था।

मोहब्बत तो करते थे,
बादशाहों वाली,
पर इजहार भी करना,
कहाँ नसीब था।

मैं कितना खुशनसीब था,
तेरा हाथ मेरे हाथों के,
 इतना जो करीब था,
सामने से निहारना तुम्हारा,
मुझे कहाँ इतना यकीं था,

मैं कितना ख़ुशनसीब था,
जब तुझे सोच के,
 आंखों को नींद का कतरा,
भी नसीब न था।

मैं कितना खुश नसीब था,
जब इस कंधे पे रखा सर,
और तेरा मीठा-सा स्पर्श,
जो दिल के इतना करीब था।

मैं कितना खुशनसीब था,
जब हर पल में बसा तू,
और तेरे लब्जों का,
मैं मुरीद था।

मैं कितना खुशनसीब था,
जब मैं तेरे और,
तू मेरे सबसे करीब था।

-आनन्द-






शुक्रवार, 8 नवंबर 2019

प्रेरणा- एक अनोखी कहानी

                   प्रेरणा-एक अनोखी कहानी

                                     

Pic-साभार गूगल

कहते हैं कि अगर किसी को आगे बढ़ना हो और वो किस्मत का इन्तजार किये बिना हाड़तोड़ मेहनत करे तो ऊपरवाले को भी उसे नजरअंदाज करने हक नही होता और वह सब कुछ देना पड़ता है जो उसने चाह रखी हो।
रचित अपनी स्कूल की पढ़ाई पूरी करके शहर के किसी पॉलीटेक्निक कॉलेज में दाखिला ले लिया था और पढ़ने में इतना होशियार कि पिछला विद्यालयी पाठ्यक्रम उसने अव्वल दर्जे से पास किया था।
इसी दरमियान रचित के पिताजी का स्वर्गवास हो गया और रचित पर समस्याओं का पहाड़ ही टूट पड़ा।अब उसकी कोई चाह नही रही थी आगे पढ़ने की। सारी जिम्मेदारियां मानो उसी का मुंह बाएं राह देख रही हो और ऊपर से घर खर्च, छोटी बहन की पढ़ाई भी तो उसे ही अब देखना था।
अतः वह निराश होकर जैसे-तैसे अपने होस्टल की ओर बढ़ रहा था और बहुत दिनों बाद वह होस्टल पहुँचा। सारे मित्र उससे मिलने आये लेकिन सब के सब भी आखिर करे तो क्या करे। रचित को कुछ नही सूझ रहा था और उसके मित्र भी इसे हल करने में नाकामयाब से थे कि रचित की पढ़ाई कैसे आगे बढ़े।
रचित की एक क्लासमेट प्रेरणा थी जो उससे अगले दिन क्लास के वक्त मिली, जब रचित मायूस सा अपनी किताबें समेटकर निकलने की तैयारी में था। उसी वक्त प्रेरणा ने उसे आवाज दी और इशारा करके अपनी ओर बुलाया। रचित आवाज सुनकर सकपका गया क्योंकि पहले कभी किसी लड़की ने उसे ऐसे नही पुकारा था। वह सहमा सा उसके पास गया और दोनों कैंटीन की तरफ चल पड़े।
दोनों ने बाते की और नतीजा अभी कुछ नही था लेकिन समस्या अब प्रेरणा को भी हो गयी थी क्योंकि उसका खुद का संघर्ष कुछ निराला था, वह भी तो आखिर स्कॉलरशिप से पढ़ाई कर रही थी। लेकिन कहते है ना कि जिसके कोहनी के हाड़ को लगी हो, वही उसका असली दर्द जानता है। ऐसा ही कुछ अब प्रेरणा के साथ चल रहा था।
प्रेरणा बहुत ही सरल स्वभाव की लड़की थी और उतनी ही बेबाक और निडर भी। उसके भी जिंदगी में आगे पीछे कोई नही था। माँ बाप का पता नही और वह तो हमेशा अनाथ आश्रम की प्राचार्या को ही माँ समझती थी और उसी को अपना घर भी।
लेकिन अगले ही दिन जब वह कॉलेज आयी तो आते ही उसने रचित को ढूंढना शुरू किया और जब रचित को लाइब्रेरी में पाया तो बिल्कुल उछल पड़ी। और बोली रचित अब तुम्हे उदास होने की कोई जरूरत नही है, मेरे पास तुम्हारे लिए एक आईडिया है।
रचित कुछ समझ पाता उससे पहले ही उसने सारा मास्टर प्लान टेबल पर डाल दिया।उसने रचित को बताया कि उसके आश्रम में कोई बैंक मैनेजर हमेशा कुछ न कुछ बच्चों को बांटने के लिए आते रहते है और उसने रचित की समस्या मैनेजर साब को बताई।
अब बैंक में मैनेजर साब से मिलने की बारी रचित की थी और अगले ही दिन रचित और प्रेरणा बैंक की ब्रांच में मैनेजर साब का इंतजार कर रहे थे। जैसे ही साब आये ,रचित ने प्रणाम किया और दोनों आफिस के अंदर। फिर साब ने रचित की जिज्ञासाओं को भांप कर कुछ देर सोचने के बाद बोले।
रचित तुम्हारा कॉलेज टाइमिंग क्या है।
इतने में तपाक से प्रेरणा बोल पड़ी- सुबह 7 से 12
मैनेजर साब प्रेरणा के उत्साह को देखते हुए मुस्कुरा कर बोले- रचित, मानो अब तुम्हारी प्रॉब्लम का सोलुशन मिल गया।
तुम कॉलेज के बाद 2 बजे से 10 बजे तक मेरे पास आ सकते हो, मेरे पास तुम्हारे लिए एक काम है, जिससे तुम्हारी कॉलेज भी पूरी हो जाएगी और घर की भी चिंता खत्म। तुम्हे 2 बजे से बैंक एटीएम का गॉर्ड बनने में कोई समस्या तो नही?
रचित को भी हाँ बोलते हुए एक सेकंड न लगी और नोकरी फिक्स हो चुकी थी।
अगले ही दिन से रचित की दिनचर्या बदल चुकी थी, और सुबह 5 बजे जगा, हाथ मुँह धोकर, टहलने निकल पड़ा और मन ही मन प्रेरणा का शुक्रिया कैसे अदा करे , यह सोचता हुआ आगे बढ़ रहा था।
फिर वह तैयार होकर कॉलेज गया और रोजमर्रा की तरह जैसे उसके साथ कुछ हुआ ही न हो, वह बिंदास लेक्चर अटेंड कर रहा था, जैसे उसे कुछ प्रॉब्लम ही नही हो।
अब 12 बजे वह होस्टल जाकर खाना खाया और पहुँच गया बैंक की शाखा में। अब तो यह उसकी रोजाना की दिनचर्या में जुड़ गया था। और रात को 10 बजे वापस अपनी साईकल से होस्टल जब तक कि दूसरा गॉर्ड वहाँ नही आ जाता। ऐसे में होस्टल मेस स्टाफ भी रचित का बड़ा ही सहायक साबित हुआ। उसका खाना पैक करके रख दिया जाता और जैसे ही रचित आता, हाथ मुँह धोकर खाना खा लेता।
हाँ, कुछ समस्या तो उसे फिर भी होती थी, लेकिन वह काफी सूझबूझ वाला लड़का था ,जब भी बैंक जाता तो अपने काम की बुक्स और पढ़ने की सामग्री साथ ले जाता और बड़ी आराम से वातानुकूलित केबिन में तसल्ली से पढ़ता। यह कहना भी कोई अतिशयोक्ति नही है कि जब आप किसी काम को सिद्दत से करते है तो ये कायनात भी आपकी सहायक साबित होती है और ऐसा ही रचित के साथ भी हुआ।
ऐसे करते -करते कब दिन बीत गए और पता भी नही चला और एक महीना पूरा हो चुका था । और जिस लग्न से उसने गॉर्ड की ड्यूटी की ,उसी लग्न और उत्साह से मैनेजर साब ने रचित के हाथ मे 6000 का चैक रख दिया और अब तो रचित भी बैंक के बाकी कर्मचारियों का चहेता बन गया था। उसका भी अब एक खाता बैंक में खुल चुका था और या यूं कह लीजिए वह भी बैंक का एक कर्मचारी बन चुका था।
सभी उसे बहुत पसंद भी करने लगे थे क्योंकि उनकी भी रचित हेल्प कर दिया करता था कभी-कभी। अब रचित कोई समस्या नही थी क्योंकि फीस उसकी प्रिंसिपल साब ने माफ कर दी और खाना- रहना होस्टल में था ही। अब जो कुछ बैंक से मिलता वो सब वह घर भेज देता। इससे घर पर भी सब कुछ ठीक चल रहा था और मां का मन भी अब हल्का था क्योंकि छुटकी की भी पढ़ाई गाँव के सरकारी स्कूल में सही चल रही थी।
ऐसे करते -करते कब सेशन खत्म हो गया और रचित और प्रेरणा दोनों कॉलेज से इंजीनियरिंग का डिप्लोमा पूरा कर चुके थे और दोनों का प्लेसमेंट अच्छी कंपनी में हो चुका था और किस्मत की बात यह है कि दोनों अभी भी एक साथ, एक आफिस में काम कर रहे है।
जब भी रचित घर आता तो अब प्रेरणा को घर ले आता था और उसे भी अब रचित की बहन और माँ ,अपना परिवार जैसा लगने लगा था। लेकिन समाज मे ऐसे रिश्ते को हेय दृष्टि से देखा जाता है यह उनको कहाँ पता था ।
लेकिन इस दीवाली रचित की बहन ने एक दम से कह ही दिया था कि - भैया, आप दोनों शादी क्यों नही कर लेते?
और मानो दोनो के चेहरों की हवाइयां उड़ गई थीं सुनते ही।
रचित एकाएक बोल उठा- माँ, ये मेरी अच्छी दोस्त है। ऐसे कैसे हो सकता है।
पर माँ ने बिना वक्त गवाएं, प्रेरणा से ही पूछ लिया- क्या तुम्हें रचित अच्छा लगता है। बस फिर क्या था, प्रेरणा के पास इसका कोई जवाब ही नही था और इसी में उसकी हाँ थी।
इतने में माँ ने रचित को बोला कि- इसे परिवार मिल जाएगा और हमे बहू, क्यों प्रेरणा ?
प्रेरणा शर्म से बस सर झुकाए बैठी थी, अब मांजी को बोले तो भी क्या ? क्योंकि प्रेरणा भी तो शायद मन ही मन यही चाहती थी।
पर जब माँ ने दोनों को समझाया तो दोनों मान गए क्योंकि कितने दिन ऐसे सब चलता और प्रेरणा का तो कोई घर और परिवार भी नही था।
अंततः दोनों ने शादी कर ली और लड़की वालों की तरफ से कन्यादान करने का मौका मिला- बैंक मैनेजर साब को।
यूँ तो मैनेजर साब को एक लड़की है पर अब दो हो चुकी थी।
और पूरे घर और गाँव मे अब खुशी का माहौल था और हो भी क्यों न, आखिर दो इंजीनियर जो शादी कर रहे थे।
और साथ ही आश्रम की प्राचार्या की खुशी का भी कोई ठिकाना नही था, उनकी एक छात्रा जो अब एक जीवन की नई पारी की शुरुआत जो करने जा रही थी। जिससे अन्य बच्चों को भी जीवन मे आगे बढ़ने की प्रेरणा जो मिल रही थी।
प्रेरणा का जैसा नाम था वह तो अब रचित के लिए प्रेरणा बन चुकी थी और दोनों एक साथ माँ और छुटकी के साथ शहर में रह रहे थे और अब तो कंपनी से उन्हें घर भी मिल चुका था । अब चारों की एक बहुत ही संजीदा जिंदगी चल रही थी और छुटकी का दाखिला भी अब उसी शहर के कॉलेज में जो करवा दिया था।
हाँ, लेकिन प्रेरणा की एक आदत आज भी खास है जो रचित को अच्छी भी लगती है और वो ये है कि - अपना जन्मदिन तो वह आज भी उसी अनाथ आश्रम के बच्चों के साथ मनाती है। उनके लिए बहुत सारे तोहफे लेकर जाती है और प्राचार्या के लिए कुछ पैसे भी ,जिनसे आश्रम की कुछ रोजमर्रा की चीज़ें लायी जा सके। और प्रेरणा का आश्रम अब प्रेरणा का मायका भी था जिसमे वह जैसे ही समय मिलता तो वही बीता के आती थी।
प्रेरणा अब रचित के साथ - साथ आश्रम के बच्चों की भी प्रेरणा बन चुकी थी। इसलिए कहते है कि- अगर आप मानवता को कुछ अच्छा देने का प्रयास करते है तो वही से यह दुगुना होकर वापस मिलता है। इसलिए किसी की सहायता करने में कभी पीछे नही हटना चाहिए, जैसा प्रेरणा ने किया और उसे मिला भी।


                         -आनन्द

   
       


शनिवार, 19 अक्तूबर 2019

यादें तेरी

यादें तेरी
Pic- गूगल साभार

जिन्दगी की उधेड़बुन में,
न जाने क्यों 
भूल जाता हूँ तुम्हारी यादों को,
यादों के उन तमाम वादों को।

एक बिखरी सी सुबह जब 
सोकर जागता हूँ,
तुम्हारी एक झीनी सी तस्वीर,
नजर जो आती है,

आती है उसी के साथ वो 
गर्म कॉफ़ी और लजीज नाश्ता,
और नाश्ते के साथ नेक इरादों को।

तुम होती तो हो उस पल में,
पर पोहे में सिर्फ मूंगफली के दाने सी,
जो चाहिए मुझे पोहे से भी ज्यादा,
मैं क्यों भूल जाता हूँ उन हसीन लम्हों को,

जिनमें खाने से ज्यादा,
चाहिए उपस्थिति तुम्हारी,
बस वही एक एहसास मुझे,
चाहिए हर पल और हर क्षण में।

जिन्दगी की उधेड़बुन में ,
न जाने क्यों भूल जाता हूँ तुम्हें,
मानता हूं गुनहगार तो हूँ मैं 
आपकी तन्हाई का,

पर सजा दो तुम मुझे प्यार से,
है कुबूल सब जख्म,
लेकिन चाहिए सभी आपके साथ मे,
उन खुशनुमा लम्हों की याद में।

हर पल आपकी यादों का,
ही तो मुझपे साया है,
आपके साथ बीते हर एक पल को,
इस दिल ने खुद संजोया है।

-आनन्द-
विशेष- जाने अनजाने में या फिर जिंदगी की व्यस्तताओं में हम कितनी ही बार अपनी जिंदगी में उन हसीन और अच्छे पलों को खो देते है। अतः इन छोटे-छोटे पलों का भरपूर तरीके से जिये।

मंगलवार, 1 अक्तूबर 2019

नेताजी, भई नेताजी (बाल कविता)

नेता जी,भई नेताजी


Pic-गूगल साभार

नेताजी भाई नेता जी
कहते इनको नेता जी,
इंसानियत मर गयी इनकी जीते जी,
जितना चाहो रोज खिलाओ,
भरता न इनका पेटा जी,

आता है जब वक्त चुनावों का,
करते ये नौटंकी जी,
जाते सारे गाँव-गाँव और,
करते झूठे कसमें-वादे जी।

जीत जाते जब ये चुनाव ,
समझते खुद को राजा जी,
आते न एक दिन भी जनता में,
करते अपने मन का सोचा जी,

देश का ये बजट बनाते,
खुद का ईमान बेच खाते जी,
बनवा लिए बंगले और मकान विदेशों में,
इनकी जनता भरती खोटे जी,
नेता जी, भई नेता जी।

जब आये बारी पुलिस के पकड़ने की,
कार्यालय में छुप जाते जी,
फिर कोशिश करते 
कानून से सौदेबाजी की,
जब भी न बनती बात तो ये,
कर लेते ये विनती जी,
नेता जी, भाई नेता जी,

औलादें इनकी बैठे- बैठे,
 करोड़पति कहलाती जी,
बाकी जनता चाहे तरसे एक -एक दाने को,
वो ना है इनकी कोई विपदा जी।

खुद न करते कोई काम और मेहनत,
बैठे रहते ठाले जी,
फिर भी आता पैसा और ,
करते रहते घोटाले जी,

नेता जी भाई नेताजी,
सरकार अब बदल गयी और 
जनता को भी समझ आ गया 
काम आपका खोटा जी,
नेता जी भाई ,नेताजी।

-आनन्द-

अपील- यह एक हास्य और व्यंग्य की एक मिली जुली कविता है इसका किसी से व्यक्तिगत भावना को ठेस पहुँचाना नही अपितु समस्त जनता को जागृत करना है। 




रविवार, 15 सितंबर 2019

सावन और तुम

सावन और तुम


 शांत जल सी मधुर आवाज है तेरी
कल-कल करता मधुर संगीत,
दोनों ऐसे मिले है जैसे,
है जन्मों के मीत।

अच्छा लगता तो बहुत है साथ तुम्हारा,
पर होता है ऐसा कहाँ हर-बार,
सोचे जिसको ये मन बावरा,
लगता है जो प्रीत का त्योंहार।

पारदर्शी-सा,सीधा-सादा मन मेरा,
उतना ही दुर्लभ है ये प्यार,
कैसे जतन करूँ मैं अब,
लाखों जतन भी लगते है बेकार।

शीश झुका के सजदा करूँ,
करूँ मैं  हर-दिन, हर-रात,
फिर भी क्यूँ नही प्रभू सुने,
ये मेरी करुण पुकार।

प्रेम-रंग तेरा चढ़ा है ऐसा, 
लगे जैसे बूंदों की  बौछार,
फिर ऊपर से ठहरा ये,
सावन का महीना और बारिश की फुहार।

अब तो आजा मेरे प्यारे माही,
मन-मोर पपीहा बोले ये हर बार,
क्यूं करे देरी अब एक पल भी,
नही होता मुझसे, ये बैरी इंतजार।

आता है ये साल में केवल एक बार,
मिलन का है ये प्यारा-सा त्योंहार,
है ये सावन की मीठी-सी पुकार।

लेखन- आनन्द

बुधवार, 11 सितंबर 2019

रुठा हमसफर


रुठा हमसफर

Pic- गूगल साभार

यूँ न रूठा करो हमसे,
 हमे तो मनाना भी नही आता।
यूँ न उलझा करो,
हमे सुलझाना भी  नही आता।
एक तेरे प्यार की थपकी ,
से ही तो आया है ये गुरूर।
इस गुरूर को न तोड़ो,
 फिर वापस बनाना भी हमे नही आता।

प्यार करते है तुम्हें बेशुमार,
 हमे बताना नही आता।
जताते तो खूब है इस दुनियां में 
अपने प्यार को,
कम्बखत हमे तो ,
ये जताना भी नही आता।
रूठा न करो तुम हमसे,
हमे तो मनाना भी नही आता ।

बात करते है तुमसे 
ताकि हमे प्रेरणा मिल सके ,
आगे बढ़ते रहने की,
वरना हमे तो आपको इतनी रात को
 सताना भी नही आता।

बैठकर सोचते है कभी कभी तो,
कि कह दे सब 
दिल की बातें तुमसे,
लेकिन सामने आते ही आपके,
इन लफ्जों को आपसे टकराना ही नही आता।
इसीलिए कहते है हम तुमसे कि,
रूठा न करो तुम हमसे,
हमे तो मनाना भी नही आता।

न जाने क्यों गायब,
हो जाती है सारी बाते,
जब भी आपसे करना चाहते है गुफ्तगू
इन बातों का खेल भी तो देखो,
इन्हें भी आपसे रूबरू,
 होना भी तो नही आता।

हुआ है आजकल कुछ ऐसा
की हर वक्त जुबां पर,
 होता है नाम आपका,
भले हो कॉफी की गर्म भाप,
या हो भले ही किसी पुराने तरानों की धुन,
ये प्यार ही तो है जानाँ,
बस यूँ समझ लो
इस प्यार को तो इम्तेहान देना भी नही आता।
रुठा न करो तुम हमसे,
हमें तो मनाना भी नही आता

लेखन- आनन्द

अपील- सभी प्रेमी- प्रेमिकाओं से सादर निवेदन है कि हमेशा अपने साथी का सहयोग करें और एक प्यार-भरी जिन्दगी व्यतीत करें। तकरार हर किसी के बीच मे होती है, पर उसे वापस जोड़े और एक स्वस्थ जीवन का निर्वाह करें।

                                        









रविवार, 1 सितंबर 2019

बचपन का जमाना

बचपन का जमाना

Pic-facebook

याद है मुझे वो बचपन का जमाना
पूरे दिन खेलना और खिलाना,
न फिक्र थी कुछ करने की
बस सोचते थे सिर्फ खेल खिलौनों की

बारिश आते ही नहाने जाते थे,
गीली मिट्टी के घर जो बनाते थे,
क्या पता था एक दिन ये
हकीकत  बन जाएगी,
वही घर असलियत में अब
बनाने की बारी आएगी।

आज भी याद है
वो साथ मे सबके मेले जाना
और जिद्द करके वहाँ से लाया गया खिलौना
अब तो बस यही एक दुनियां थी
जिसमे मैं और मेरी मस्तियां थी,

सुबह उठते ही आंगन में
जो शोर-गुल जो करते थे।
आज खामोश हूँ, सोचता हूँ ,कहाँ गया मेरा
प्यारा सा बचपन,
जिसमे खूब मस्तियां करते थे।

अब तो थोड़े बड़े हुए क्या
स्कूल भी जाना पड़ता था,
समय की पाबंदी फिर भी नही,
लेकिन पढ़ना भी तो पड़ता था,

बेसब्री से रहता है अब तो इंतजार,
की कब आये  प्यारा-सा रविवार,
यह टेलीविज़न का जो था अनुपम त्यौहार,
सुबह होते ही नहा धोकर बैठे जाते थे,
 क्योंकि रंगोली और चित्रहार जो आते थे।

अब तो खुश थे हम सब,
क्योंकि जूनियर जी, जो आने वाला था,
उसके बाद तो शक्तिमान भी बड़ा निराला था,
क्योंकि खत्म होते ही इसके,
कुछ छोटी मगर मोटी बातें
आती थी,
जो रोजमर्रा की अच्छी
बाते सिखलाती थी,

आइसक्रीम की भी
अपनी ही एक कहानी थी
बजती थी दोपहर में जब भी बेल,
आवाज़ बड़ी जानी पहचानी थी,
सुनते ही घर से दौड़े आते थे
पचास पैसे भी जिद करके
लाते थे,
और वो बर्फ का गोला खाकर
भी खुश हो जाते थे,

याद है मुझे वो बचपन का जमाना,
जहाँ न कोई फूटबाल
 और न कोई  क्रिकेट का
था दीवाना,
रोज शाम को आइस-पाइस खेलते थे,
साथ ही पापा की डांट भी झेलते थे,

शाम होते ही खाना खाकर,
दादी के पास सोना,
और उनकी सुनाई कहानी
का कभी खत्म न होना,
छुट्टियां होते ही हम नानी के घर जाते थे,
सुना है अब तो बचपन मे,
बच्चे दादी के घर भी जाते है।

ये दुर्भाग्य ही तो है इस बचपन का,
जिसमे न कोई नानी और न कोई दादी है,
बचपन गया जिसमें न कोई आजादी है,
जिसमे सतोलिया और कंचे बिना खेल कहाँ पूरा है,
तभी तो आज का बचपन अभी अधूरा है।

अपील- बच्चों को अपने बालपन को अच्छे से जीने दे और एक बच्चे के सर्वांगीण विकास में भागीदार बनें और उन्हें अपना बचपन जीने दे, कलात्मक शैली का विकास करते हुए।


  लेखन- आनन्द








गुरुवार, 15 अगस्त 2019

आजादी की कीमत

    स्वतन्त्रता दिवस
(प्रकाशित-झांकी हिंदुस्तान की)
(प्रखरगूँज,दिल्ली)
Pic-गूगल साभार

बड़ी मुश्किल से मिली है ये आजादी हमे,
आओ मिलकर जश्न मनाये सब हम,
खोया है जिस माँ ने अपने लाल को,
उस देश के दीवाने को याद करे हम।

लाखों जाने गयी है तब जाके मिली है,
बड़ी मेहनत से ये आजादी की शमा जली है,
एक भगत सिंह था आजादी का दीवाना,
बाकी टोली का भी रुख यही था मस्ताना।

खुदीराम की जवानी भी अभी,
 पूरे रूवाब में जो थी,
जिसने बिना सोचे ही दे दी जिन्दगी,
जो सोची न कभी ख्वाब में थी।

एक आजाद था जो था अपनी ही धुन का पक्का,
कहाँ रूकने वाला था वो देशभक्त था सच्चा,
बिस्मिल ने न सोचा था कभी हिन्दू है कोई है मुसलमां,
जो सुलग जाए अंग्रेजो पे वही था असली ज़मां।

बड़ी मेहनत से मिली है ये आजादी हमें,
आओ मिलकर जश्न मनाये सब हम,
कभी गांधी तो,कभी सुभाष  बाबू थे मोर्चे पे खड़े, 
दीवाने थे वो जो आखिर सांस तक थे लड़े।

देश की शान को लड़े थे, थे सब भाई-भाई,
याद है वो लाला भी जिसने लाठी से लड़ी थी लड़ाई,
मौत के एक आह्वान पर वो चले गए,
सारी जिन्दगी की आजादी हमे दे गए।

आओ सब मिलकर देते है उन्हें श्रद्धांजलि ,
जिनकी एक जान ने दी है हमे ये जिंदगी,
करते है याद हम आज उन वीरों को ,
पिता के प्यारे और माँ के अनमोल हीरों को।

जय हिंद, जय भारत , जय माँ भारती।।

- आनन्द



मंगलवार, 13 अगस्त 2019

भारत की सुषमा

भाव भिनि श्रद्धाजंलि 


सुषमा स्वराज (पूर्व-विदेश मंत्री)


कल रात भयपूर्ण खबर मिली,
आँखे मेरी गमगीन हुई,
राजनीति की सुदृढ़ पुत्री, 
गहरी निद्रा में लीन हुई।

लोकतंत्र के आधार सी कहानी थी,
जन सेवा को आतुर,
वो लक्ष्मीबाई सी दृढ़ और संभल,
तेजपूरित और महाज्ञानी थी।

संविधान की ज्ञाता औऱ 
एक महान उपासक थी,
कूटनीति में माहिर, और 
लोकतंत्र की आराध्या थी।

शुरुआत की उस दौर से,
जहाँ राजनीति अपराधों का गढ़ थी,
करती थी प्रयास रोज और
वो बड़ी साहसी और निश्चयी दृढ़ थी।

अब कौन इस पीढ़ी को सींचेगा,
और कौन ऊँच-नीच को मिटाएगा,
कौन करेगा जय घोष संसद में,
कौन अब भेदभाव मिटाएगा।

करता हूँ मै प्रार्थना प्रभू से,
उस आत्मा को शांति देना,
देना उसको फिर कोई अमिट पृष्ठभूमि,
और अपने श्री चरणों मे जगह देना।

टिप्पणी- मेरी यह रचना आदरणीया सुषमा जी को समर्पित है, जो एक महान राजनीतिज्ञ और प्रबल व्यक्तित्व की धनी थी। 
- आनन्द





मंगलवार, 6 अगस्त 2019

जम्मू- कश्मीर और 370

लोकतंत्र की शक्ति

Pic- गूगल साभार

लोकतंत्र का स्वाभिमानी,
भारत देश महान है,
छोड़ दी जीत में मिली जमीन भी,
वाकिफ इससे सारा जहान है।

फिर भी न माने दुश्मन,
नोच लिया जिस टुकड़े को,
अभिन्न अंग है ये जिसका, 
वो प्यारा-सा हिंदुस्तान है।

लेकिन कुछ सियासी पिल्लों ने ,
मचाया संसद में घमासान है,
और फिर से अलग कर दिया उसे
 मस्तक है जिसका, वो हिंदुस्तान है।

मेरे देश में यह धरती की जन्नत कहलाता था,
स्वर्ग भी इसके सामने फीका पड़ जाता था,
केसर की क्यारी और देवों की नगरी था,
भारत के हर मानव -दिल का यह जिगरी था।

लेकिन उन पिल्लों को क्या पता था
 एक दिन ऐसा मोदी-शाह का तूफान जो आएगा,
बना के रखा था जिन्होंने स्वर्ग को जहन्नुम,
उनका अलग देश और संविधान का,
अटूट सपना भी चोपट कर जाएगा ।

कहता था जो सीना है छपन इंच का,
उसकी अग्नि परीक्षा का दिन आएगा,
और 370 में लिपटा हुआ कश्मीर भी,
अब भारत का अभिन्न अंग हो जाएगा।

लहराओ तिरंगा खुले दिल से अब,
भारत सारा एक है,
देख रहा है सयुंक्त राष्ट्र संघ भी,
भारत के लोकतंत्र की शक्ति को,
भले ही इसमे राज्य अनेक है।

आजाद हुआ भारत ,
आज सही मायने में,
खिला है केसर का फूल
और महक दिलों के आईने में,

कहता है ये आनन्द का विवेक है,
कश्मीर से कन्याकुमारी तक,
अब भारत सारा एक है।।


जय भारत , जय माँ भारती, जय लोकतंत्र,

लेखन- आनन्द

सारांश- यह वास्तव में लोकतंत्र की असली जीत है, इसका जश्न अवश्य मनाये क्योंकि कश्मीर अब भारत का पूर्णतः अंग है, जो हमेशा भारत का था, और हमेशा भारत का ही मस्तक रहेगा।




शुक्रवार, 2 अगस्त 2019

क्षात्र- धर्म

क्षत्रिय-धर्म


Pic- कौमी एकता का परिचय देती एक तस्वीर
(जिसमे महाराणा प्रताप व भील राजा पूंजा)
(Pic- गूगल साभार)


है वही क्षत्रिय जो,

एकता के सूत्र में,
 बांधे एक साथ सारी कौम को,
कौम को, व्योम को,
धरा के अनमोल हर-रोम को।

लक्ष्य में बहे जिसके,

धरती और आकाश हो,
धीर हो, प्रबल हो, प्रचण्ड हो,
जो सूर्यपुंज का प्रकाश हो।

है वही क्षत्रिय जो
खड़ा हो साथ न्याय के,
धर्म के, अभिप्राय के
जो नाश करे,
अधर्म और अन्याय के,

है वही क्षत्रिय जो,
साथ मे खड़ा हो हीन के, 
शिव के त्रिशूल सा, सृष्टि के उसूल सा,

है वही क्षत्रिय जो,
उठा ले खड्ग, हरने को
दोषियों के प्राण को,
दुश्मनों के हर बाण को,

है वही क्षत्रिय जो,
बाजी लगा दे जान की।
मान की, अभिमान की,
जगत के एहसान की।।

प्रण हो उसका ऐसा,
 सूर्य का तप है जैसा,
बादलों को चीर दे,
प्यासे को नीर दे,
दे वही शांति,
अशांति को नाश दे।

है वही क्षत्रिय जो
जिया हो सिर्फ शान से,
शान से, मान से,
  लड़ा हो पूरे जोश से,
जोश से, होश से,
खडग और कृपाण से।

है वही क्षत्रिय जो, 
साथ दे हर प्राणी का,
हर वाद में, प्रमाद में,
जो जान दे तो सिर्फ,
धरा के मान में, भारत माँ के त्राण में।

जय भारत , जय माँ भारती।


लेखन- आनन्द शेखावत

अपील-  इस व्यंग्य का उद्देश्य किसी की व्यक्तिगत भावनाओं को ठेस पहुँचाना बिल्कुल भी नही है, यह तो मात्र धरती के वीर योद्धाओं और शूरवीरों का गान मात्र है।
जिन्होंने हँसते-हँसते अपने क्षात्र-धर्म को निभाते- निभाते अपने प्राणों की आहुति दे दी।





शनिवार, 13 जुलाई 2019

प्रतिस्पर्धी युग और छात्र


 छात्र-जीवन की परीक्षा

pic-google


आओ सुनाता हूं तुम्हे हालात ए बेरोजगारी,
किस्सा है उनका जो छात्र करते है कम्पीटिशन की तैयारी,
हालातों ने इन्हें भी बहुत हिला के रखा है,
पर इसके हौसलों ने  पाँव अब भी जमा के रखा है,

ना कोई खाने का ठिकाना है, ना कहीं सोने का,
डर जो हर वक्त लगा रहता है रिजल्ट के आने का,
ऐसा नही है कि मेहनत में कोई कमी है,
पर फिर भी भय है सिलेक्शन के ना होने का

रोज जगते ही पहाड़ सा जो दिन लगता है,
शाम तक पढ़ते पढ़ते वो भी निकल जाता है,
पहुँचते ही लाइब्रेरी में किताबों का ढेर नजर आता है,
पढ़ने वाला वहाँ हर कोई अपना ही प्रतिद्वंदी नजर आता है,

जैसे तैसे करके तैयारी को पार लगाता है,
अब तो बस कम मार्क्स के आने का भय सताता है,
जब न हो सिलेक्शन किसी एक परीक्षा में,
तो ये पूरा जमाना ही दुश्मन नजर आता है,

(खुद के बारे में कहता है-)

साहस तो देखो मेरा, मैं उठ खड़ा हो गया हूं,
कल फिर से परीक्षा देने को तैयार जो हो गया हूं,
यूँ ही नही कहते छात्र जीवन को कठिन,
इसी से तो गिर के खड़ा होने का हूनर जो सीख गया हूं,

खा लेता हूं खाना अब मैं बिना किसी ना- नुकर के,
हर सब्जी अब तो अच्छी लगती है,
कहाँ गया मेरा रूठ जाना? जब मेरे पसन्द की
तरकारी घर मे न बनती थी,

माँ भी अब तो मुझे बहुत मिस करती होगी,
जब मेरे पसन्द का खाना बनाती होगी,
कोई क्यों न यकीन दिला देता उसको,
कि तेरा बेटा अब समझदार जो हो गया है,
वो हालातों से लड़ना भी तो सीख गया है।

मैं भी अडिग हूँ अपने पथ पर 
देखे किस्मत कब तक परखती है,
जब ठान चुका हूं मैं सफल होने की,
देखे कौनसी मुश्किल रोकती है,

इस जिन्दगी की परीक्षा भी बड़ी निराली है,
पहले परखती है और फिर बड़ा पाठ सिखलाती है,

                 - प्रतिस्पर्धी युग के युवाओं को समर्पित

                        लेखन-  आनन्द





सोमवार, 1 जुलाई 2019

सूरत अग्नि कांड-एक प्रतिक्रिया

आँखों के तारे

    {विशेष- ब्लॉग बुलेटिन सम्मान रत्न-2019 में नॉमिनेटेड}

                   Pic- सूरत कोचिंग सेन्टर भवन
                             Pic- google

रोज की तरह आज की सुबह भी बड़ी निराली थी,
अब तो सूरज ने भी करवट बदल डाली थी,
और हमेशा की तरह उनकी भी यही तैयारी थी,
कि अगले ही कुछ सालों में जिन्दगी बदलने की बारी थी।

दिलों में जोश और अथक जुनून उनमे भरा पड़ा था,
और अगले ही पल उनमें से हर कोई कोचिंग में खड़ा था,
उस अनभिज्ञ बाल मन को क्या पता था,
कि अगले ही पल तूफान भी उनके द्वार पर खड़ा था ।

लेकिन जैसे-तैसे क्लास की हो गयी तैयारी थी,
उन्हें क्या पता उनकी किस्मत यहाँ आके हारी थी,
वो तो बस धुन के पक्के लगे थे भविष्य बनाने मे,
उनका भी तो लक्ष्य था हर सीढ़ी पर आगे आने में।

जैसे ही मिली सूचना,उस अनहोनी के होने की,
मच गया था कोहराम,पूरे भवन और जीने में,
ना कोई फरिश्ता था आगे,अब उनको बचाने में,
लेकिन फिर जद्दोजहद थी,उनकी जान बचाने में।

कॉपी पेन और भविष्य,अब पीछे छूट चुके थे,
सब लोगों के पैर फूल गये औऱ पसीने छूट चुके थे,
अब तो बस एक ही ख्याल,दिल और दिमागों में था,
विश्वास अब  बन चुका था,जो खग औऱ विहगों में था।

यही सोचकर सबने ऊपर से छलांग लगा दी थी,
लेकिन प्रशासन की तैयारी में बड़ी खराबी थीं,
न कोई तन्त्र अब तैयार था नोजवानों को बचाने में,
अब तो बस खुद की कोशिश थी बच जाने में।

पूरी भीड़ में बस,वो ही एक माँ का लाल निराला था,
जो आठ जानें बचा के भी,न रूकने वाला था,
वो सिँह स्वरूप केतन ही, मानो बच्चों का रखवाला था,
रक्त रंजित शर्ट थीं उसकी, जैसे वही सबका चाहने वाला था।

बाकी खड़ी भीड़ की,आत्मा मानो मर चुकी थी,
उनको देख के तो मानो,धरती माँ भी अब रो चुकी थीं,
कुछ निहायती तो बस वीडियो बना रहे थे,
और एक-एक करके सारे बच्चे नीचे गिरे जा रहे थे।

फिर भी उनमें से किसी की मानवता ने ना धिक्कारा था,
गिरने वाला एक - एक बच्चा अब घायल और बिचारा था,
कुछ हो गए घायल और कुछ ने जान गँवाई थी,
ऐसे निर्भयी बच्चों पर तो भारत माँ भी गर्व से भर आयी थी।

लेकिन फिर भी न बच पाए थे वो लाल,
और प्रशासन भी ना कर पाया वहाँ कोई कमाल,
उज्ज्वल भविष्य के सपने संजोये वो अब चले गए,
कल को बेहतर करने की कोशिश में आज ही अस्त हो गए।

उन मात- पिता के दिल पर अब क्या गुजरी होगी,
उनकी ममता भी अब फुट- फूटकर रोई होगी,
क्या गारंटी है किसी और के साथ आगे न होगा ऐसा,
इसलिए प्रण करो कि सुधारे व्यवस्था के इस ढांचे को,
ताकि न हो आहत कोई आगे किसी के खोने को,

क्योंकि जो गए वो भी किसी की आँखों के तारे थे,
किसी को तो वो भी जान से ज्यादा कहीं प्यारे थे।

-टिप्पणी-

धन्यवाद ज्ञापित करना चाहूंगा श्री केतन जोरवाड़िया जी का जिन्होंने ने जान पर खेल कर कुल आठ जानें बचाई,और निवेदन करना चाहूंगा समस्त मानव जाति से कि ऐसा कहीं होते हुए देखे तो मानव सेवा में योगदान दें न कि खड़े- खड़े वीडियो बनाएं।

         -सभी स्वर्गीय बच्चों को भावभिनी श्रद्धाजंली।

                                               लेखन- आनन्द



मंगलवार, 18 जून 2019

बेइंतेहा

                                बेइंतेहा

             (प्रकाशित- काव्य प्रभा, सांझा काव्य संग्रह)



इश्क़ मेरा मुकम्मल हो ना हो
पर याद तो तुझे आज भी करते हैं,
तुम भले ही गौर करो ना करो,
प्यार तो तुम्हें आज भी करते हैं।


भले ना हो अब तुम पास में,
तो क्या हुआ
पर तुम्हारा स्पर्श तो हम आज भी,
महसूस करते हैं।


प्यार से हो या गुस्से में हो,
तुम जब रौब मुझपे जमाती हो,
उस रौबीले चेहरे को तो ,
हम आज भी मिस बहुत करते हैं।


अब तो अकेले रहने में भी
 है मजा कहाँ,
तेरे अटूट साथ को तो हम
 आज भी तरसते है।


तेरी तस्वीरों को सीने से लगा के सोते है,
तेरे पसंदीदा गानों को जो गुनगुनाते है,
कुछ भी कहे जमाना पर
 प्यार तो हम 
तुम्हे आज भी बहुत करते हैं।


तेरा रात को यूं सपनो में आना,

आके हल्का सा सहला जाना ,
ये प्यार नही तो क्या है?

तेरी हर उस अदा का हम बेसब्री
से इंतजार तो आज भी बहुत करते है,
तुम मानो या न मानो,
प्यार तो हम तुम्हे आज भी बेइंतहा करते है।


                                        -आनन्द-





शुक्रवार, 17 मई 2019

जल हूँ मैं

                             जल हूँ मैं


जल हूँ मैं
अथाह लोगों का बल हूँ मैं,
यूँ व्यर्थं बहाने से थोड़ा तो कतराओ,
नही मिलूंगा मैं कुछ बरसों में,
व्यर्थ करते वक्त थोड़ा तो शरमाओ।

जल हूँ मै,
मुझसे ही है चलता जीवन सबका,
पेड़ पौधे, वनस्पति और मानव तन का,
करते करते उपभोग मेरा,कोशिश करो बचाने की,
वरना रोक न सकेगा कोई, स्थिति आपदा के आने की,
वर्तमान भी मेरा है, और आने वाला कल भी मेरा होगा,
लेकिन तब तक थल में, मेरा ना कोई अवशेष बचेगा,

जल हूँ मैं,
आपकी सभ्यता का कल हूँ मै,
मुझे सोच समझकर बरतो,
वरना इतिहास मुझे ही दोष देगा,
और एक सभ्यता का मुझसे ही नाश होगा,
लांछन लगना तय है मुझपे,
पर ,हे मानव !
निर्भर है यह सब तुझपे,

जल हूँ मैं,
बचा सको तो बचा लो मुझे,
मुझसे ही चलता सब है,
नुकसान मुझे है सबसे ज्यादा इस शैतान से,
जो विद्यमान है हर उस अहितार्थ इंसान में,

जल हूँ मै,
यूँ तो सबको जीवन मैं देता हूँ,
पर कोई मेरे जीवन की भी तो सोचे,
और आने वाली पीढ़ियों के कल की भी सोचे,
चाहे लाख साधन जुटा लो तुम जीने के,
पर मेरे बिना तुम न रह पाओगे,
आज अगर मैं बचा तो कल,
हर पल मुझे अपने अस्तितव में पाओगे,

इसीलिए कहता हूँ जल हूँ मैं,
आपकी जरूरतों का कल हूँ मैं,

                                                -आनन्द -




रविवार, 5 मई 2019

एक दोस्त

                        एक दोस्त

              ( प्रकाशित- काव्य प्रभा, सांझा काव्य संग्रह)




एक दोस्त जमाने में ऐसा था,
जो बेबाक मोहब्बत हमसे करता था ।
सुबह कहो या शाम कहो, 
हर वक्त याद हमे जो करता था ।

रोज सुबह जब आता कॉलेज,
साथ मे खुशियां लाता था ।
जाते जाते शाम तक घर को,
थोड़ा मायूस हमेशा हो जाता था ।
लेकिन अगली सुबह आने का
वादा जो कर जाता था ।। 
एक दोस्त जमाने में ऐसा था,
जो बेबाक मोहब्बत हमसे करता था। ।

समस्या चाहे कुछ भी हों  files से लेके practical तक की,
सब कामों में हाथ बटाता था ।
जब ना आऊँ मैं कॉलेज तो,
Proxy जरूर लगवाता था ।
एक दोस्त जमाने में ऐसा था,
जो हर हाल में साथ निभाता था ।।

अच्छी सलाह देना आदत थी उसकी,
लेकिन कभी- कभी गुस्सा भी हो जाता था ।
लाता था टिफिन रोज साथ मे लेकिन,
मेरी पसंद की वेज बिरयानी लाता था ।
एक दोस्त जमाने में ऐसा था,
जो हर पल खुश रहता था।।

एक दोस्त जमाने में ऐसा था ,
फूलों में गुलाबों जैसा था,
यादों में कल्पना जैसा था।।




                                        - आनन्द -




                                             





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