शुक्रवार, 15 अक्तूबर 2021

खण्डेला का इतिहास भाग-1

                 रिजक बड़ी या पौरुष?




गतांक से आगे-
अंतिम अध्याय में पढा कि राव सुजाजी की मृत्यु के बाद लूणकरण को अमरसर की गद्दी और बाकी भाइयों को अन्य गाँवो की जागीर मिली जो अमरसर की गद्दी के अधीन रहती थी। इसी समय रायसल को लाम्या गाँव सहित 12 गाँव दिए गए,जिसके बाद रायसल जी लाम्या आ गए और शांति पूर्वक रहने लगे। इनके नाम से शेखावतों की एक शाखा रायसलोत का उद्भव हुआ जो कालान्तर में शेखावाटी के अधिकांश हिस्से पर राज किया और तीन बड़े परगनों में बंटे जो उदयपुर, खण्डेला, सीकर और खेतड़ी रहे।
उधर राव लूणकरण अपने अमरसर राज्य को चला रहे थे, इसी दौरान लूणकरण का एक मंत्री था जिसका नाम था - देवीदास।
देविदास अपने मालिक सुजाजी के समय से ही राजभक्त व्यक्ति था और अपनी नीति पर टिका हुआ था। उसे रायसल में एक भावी राजा दिखता था शायद रायसल जी की अपने पिता के साथ नजदीकियां या किसी युद्ध का वर्णन जैसी बातें वो अक्सर किया करते थे।इधर कुछ मंत्रियों और उपमंत्रियो ने लूणकरण को देविदास के खिलाफ भड़का दिया।
एक दिन स्वामी और सेवक में बहस छिड़ गई। लूणकरण ने पूछा-आपकी राय में रिज्क बड़ी या नर? रिज्क बोले तो- रियासत और नर बोले तो आदमी। बुद्धिमान देविदास ने उत्तर दिया- निसंदेह महाराज नर ही बड़ा होता है रिज्क का क्या बड़ा? वो तो कोई साहसी और पराक्रमी आदमी भी बना सकता है अपने परमार्थ से।
राव लूणकरण अपने रियासत को श्रेष्ठ मानते थे क्योंकि इतने बड़े राज्य के राजा जो थे। आगे जाकर लूणकरण ने मंत्री देविदास को निकाल दिया और ताना दिया कि- जाओ, मेरा भाई रायसल बड़ा साहसी और पराक्रमी है उंसके साथ रहो और उसके 12 गाँवो को राज्य में बदलो।

मंत्री देविदास बड़ा बुद्धिमान था उसी समय विनम्रतापूर्वक हाथ जोड़कर लाम्या में रायसल जी के पास आ गए और सारा हाल कह सुनाया। अब देविदास और रायसल जी लाम्या मे आराम से रहने लगे और योजना बनाने लगे कि कैसे इसे एक राज्य में बदला जाए।?
देविदास की सलाह से रायसल जी ने रैवासा के चन्देल शासक "रासोजी" से घोड़े मांगे और रासो ने 150 घोड़े रायसल को राजी खुशी दे दिए।
कुछ इतिहासकार मानते है कि सुजाजी ने अमरसर पर आक्रमण के समय बहुत सारा धन जमीदोंज कर दिया था जिसका पता केवल सुजाजी और देविदास को ही था। सुजाजी की मृत्यु के बाद केवल देविदास को ही उसका पता था। देविदास ने वह धन निकाल कर रायसल को दिया और उससे रैवासा के शासक से 150 घोड़े खरीदे।
"रायसल जससरोज" के अनुसार यह जानकारी मिलती है-

"देइदास के पास द्रव,सूजा तणो समस्त।
लामयां कढ़ी रु लेग्यो, हुयो रायसल हस्त।।"

 इसके बाद देवीदास रायसल जी को लेकर दिल्ली पहुँचे और वहा उपयुक्त स्थान देखकर रहने लगे। वे बस मौके की तलाश में ही थे।
उसी समय अफगान पठानों का एक दल, दिल्ली पर आक्रमण करने को बढ़ा,जिसमे उनका सिपहसालार कतलू खान था। दिल्ली से शाही फौज भेजी गई और देविदास ने रायसल को दैनिक वेतन भोगी के तौर पर अपने 150 घुड़सवारों को लेकर चले थे। 

इसके सम्बन्ध में कर्नल टॉड का कथन है कि-इस लड़ाई में काबुल सेनापति  ने सीधा शाही सेना के वजीर पर हमला किया और रायसल जी ने यह देखकर घोड़ा बीच मे से दौड़ाया और वजीर को बचाकर एक तरफ ले गए व अफगान सिपहसालार का सिर धड़ से अलग कर दिया। यह देख अफगान सेना भाग खड़ी हुई जब उनका सिपहसालार मार दिया गया।
कुछ इतिहासकार और रायसलोत गढ़ के कागजों और दस्तावेजों के अनुसार, इस वजीर की जगह शहजादा सलीम का होना भी मानते है जिसने अकबर को सारा हाल कह सुनाया था जिसके बाद शहजादे की रक्षा के कारण बादशाह ने रायसल जी को स्थायी  पदस्थ किया था।

शाही सेना विजय होकर जब दिल्ली लौटी तो सेनापति ने सारा हाल सुनाया और बताया कि वह योद्धा दैनिक वेतनभोगी के तौर पर शामिल था तो उसे पहचान नही सकते ,लेकिन जब उसने अफगान सेनापति को मारा तो एक पंक्ति बोली थी वह मुझे याद है-
"खदड़ा खड़ा रह , देख राजपूत के हाथ"

अब यह सुनकर अकबर सोच में पड़ गया कि ऐसा कोई वीर योद्धा है तो उसे हमारे स्थायी दल में शामिल होना चाइये बल्कि मंत्री सलाहकार बने तो भी कोई अतिशयोक्ति नही। उन्होंने उसे पहचान करने की योजना बनाई और एक भोज का आयोजन किया और आदेश दिया कि जो जिस पोशाक में था वह उसी में सजकर खाना खाने आये। देविदास आकर रायसल जी से बोले- आज आपकी तलाश हो रही है महाराज! आप भी पधारिये।

फ़ौज के सभी जवान एक -एक कर बादशाह और सेनापति के सामने से गुजरने लगे तो। किंतु शेखावत कुलसूर्य रायसल जी जैसे ही सामने आए तो सेनापति बोले- यही सरदार है।
बादशाह ने रायसल को बुलाया और उनसे पूछा कि युद्ध पंक्ति (रणघोष) क्या थी?
जैसे ही रायसल ने बताया तो बादशाह को यकीन हो गया।
लूणकरण को अब जलन हो रही थी कि यह तो अब यहाँ प्रसिद्ध हो गया।
इसी समय कर्नल टॉड ने लिखा है कि "उसी समय दरवार में राव लूणकरण जी भी थे जो रायसल के भाई थे और दरबार मे पहले से उपस्थित थे उन्होंने रायसल का तिरस्कार किया और बोले- मेरी आज्ञा बिना यह यहाँ क्यों आया है?"
किंतु वीर रायसल पर भाग्य श्री प्रसन्न हो चुकी थी। बादशाह ने रायसल जी को स्थायी पद दिया और "दरबारी " की उपाधि दी व साथ ही साथ 1250 का मनसब दिया।

इस प्रकार मंत्री देविदास ने अपनी कथनी को सार्थक कर दिखाया।
#क्रमशः-

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