सोमवार, 5 फ़रवरी 2024

खंडेला का इतिहास भाग -26


गिंगोली_युद्ध_मे_शेखावत_सरदारों_का_शौर्य



               Foto- Raja Raisal darbari

गतांक से आगे-
यह किस्सा भी मस्त है जब खण्डेला और समस्त शेखावाटी जैसे छोटे राजाओ और रियासतों की जरूरत कैसे जयपुर के जगतसिंह जैसी महा शक्ति को पड़ी ।आइए जानते है-
इसी समय विक्रमी 1862-63 में जयपुर के नए महाराजा जगत सिंह बने थे। उसी समय मेवाड़ के महाराणा भीम सिंह की पुत्री राजकुमारी कृष्णा कुमारी का विवाह पहले मारवाड़ के भीम सिंह राठौड़ से तय हुआ था और सगाई होने के कुछ समय बाद भीम सिंह का देहांत हो गया। इसी कारण भीम सिंह मेवाड़ ने अपनी पुत्री का रिश्ता जयपुर महाराजा जगत सिंह से करने का निर्णय लिया। जब मेवाड़ महाराणा द्वारा यह निर्णय लिया गया तो भीम सिंह राठौड़ मारवाड़ का भाई मान सिंह राठौड़ को यह रिश्ता कतई पसन्द नही आया।

उसने कहा कि- एक बार रिश्ता जब मारवाड़ से हो गया है तो यह जयपुर से कैसे हो सकता है। हम मारवाड़ के नए राजा है हम करेंगे राजकुमारी से विवाह। जब यह बात जयपुर महाराजा जगत सिंह को पता चली तो वो भी नाराज हो गए। अब मेवाड़ महाराणा के सामने अस्मिता का प्रश्न खड़ा हो गया आखिर करे तो क्या करे? हालांकि बाद में कृष्णा कुमारी को जहर दे दिया गया था और उसके बाद उसकी माता की हालत भी खराब हो गयी थी।उस समय मेवाड़ बहुत ही ज्यादा कमजोर स्थिति में आ चुका था।

मारवाड़ के मान सिंह ने जगतसिंह जयपुर को युद्ध के लिए चुनोती दे डाली कि या तो युद्ध करो या फिर राजकुमारी से विवाह तो मान सिंह ही करेंगे। इधर जगत सिंह पर भी इज्जत की बात आ गयी कि आया रिश्ता वापस जा रहा था। इन सबके बीच मेवाड़ सुस्त था उन्हें समझ ही नही आ रहा था क्या करे? हालांकि मेवाड़ में कृष्णा कुमारी को जहर देने में, मानसिंह राठौड़ जोधपुर की सलाह से, अमीर खाँ पिंडारी को उदयपुर भेजा गया और उसने महाराणा के वकिल और मुख्य सलाहकार अजीत सिंह चुंडावत को कहलवाया की यह संदेश महाराणा तक पहुचाए कि- या तो राजकुमारी को विष दे दिया जाए वरना पिंडारी पूरे उदयपुर को लूट लेंगे, इस समय उदयपुर की हालत नाजुक थी क्योंकि बाकी उपद्रवों में मेवाड़ टूट चुका था। और 1810 में राजकुमारी को जहर दिया गया और उसकी मौत हो गयी। मान सिंह की सलाह जयपुर और जोधपुर के भविष्य को देखते हुए ऐसा किया गया था ताकि आगे कभी जयपुर-जोधपुर के मध्य लड़ाई न हो।
  और कहा जाता है कि-इसके बाद भीमसिंह मेवाड़ के भाइयों में संग्राम सिंह शक्तावत को यह जब पता चला तो उस सिद्ध पुरुष ने कहा कि- चुंडावत सदा से मेवाड़ की हरावल का नेतृत्व करते आये है और तुमने ऐसी कायरों वाली हरकत कैसे की।
अब मारवाड़ युद्ध के लिए तैयार था लेकिन जयपुर के पास सेना की कमी थी कि जोधपुर मारवाड़ का सामना कर सके। वो जमाना शेखावाटी में ऐसा था कि - शेखावाटी को "सैनिको का घर" कहा जाता था और आज भी शेखावाटी अपना यह स्थान बरकरार रखती है। जब यह बात इस ग्रन्थ में मैने पढ़ी तो सिर फक्र से ऊंचा हो गया और उंगलियां तेज चलने लगी। कहा जाता है कि जयपुर के सारे महाराजा शेखावाटी के सैनिको और सिपहसालारों के युद्ध संचालन की तारीफ करते थे लेकिन किसी-किसी जयपुर महाराजा ने सामने तारीफ की और किसी ने नही।

अब समस्या ये थी कि शेखावाटी के वीर और राजा व सामंत तो जगत सिंह की कर प्रणाली से पहले से परेशान थे और वो जाते भी नही जगत सिंह की मदद को। और जयपुर राजा जगतसिंह को शेखावाटी की हरावल से अच्छा लड़ाका कंही नही मिल सकता था, उसने अपने बुजुर्गों से शेखावाटी के शूर-वीरों की गाथाओं को अपने बचपन मे सुन रखा था। अब जगत सिंह को खण्डेला और शेखावाटी के राजाओ को राजी करना भी अहम था और वैसे भी खण्डेला के दोनों राजा उसकी कैद में थे। जब खेतड़ी के राजा अभयसिंह ने महाराजा जगतसिंह को याद दिलाया कि रायसलोत शेखावतों को इस युद्ध मे शामिल किया जाए क्योंकि उनसे अच्छा हरावल संचालन पीढ़ियों से कोई नही कर पा रहा और वो तो केवल हरावल के दम पर ही अपनी जीत दर्ज कर देंगे। और जगतसिंह के पास तो इसके अलावा कोई चारा न था।

तब खण्डेला के दोनों राजाओ को मुक्त कर खाटू में मिलने को कहा गया। लगभग एक दशक बाद वो मुक्त हुए। राजा नरसिंह दास के दादा वृन्दावन दास जो अपने जीवन को एकांतवास में बिता रहे थे, अपने पौत्र की मुक्ति का संदेश सुनकर राजी हुए कि उत्साहपूर्वक 80 की उम्र में भी कमर पर तलवार बांध कर युद्ध के लिए खाटू पहुँच गए थे। कर्नल टॉड लिखते है कि राव शेखाजी के 10,000 वंशज उस दिन जयपुर की सहायता के लिए रण में उतरे थे। और वाकई गज़ब का युद्ध लड़ा था दादा-पौते ने, अपने शौर्य में कभी उम्र की अधिकता नही दिखने दी। लेकिन जयपुर वंशजो ने शेखावाटी के इस अमूल्य एहसान को इज्जत नही दी और इतिहास में जगह भी कम ही मिली, वरना कर्नल टॉड जैसे अंगरेज ने भी शेखावाटी को "द लैंड ऑफ वारियर्स" लिखा था।

जयपुर -जोधपुर की मुठभेड़ परबतसर के पास गिंगोली की घाटी के पास हुई जिसे राजपुताना के इतिहास में अस्मिता का युद्ध या गिंगोली का युद्ध कहा जाता है। यह युद्ध 1807 ईसवी में लड़ा गया। अपने राठौड़ सामन्तों के विश्वासघात के कारण मानसिंह पराजित होकर जोधपुर दुर्ग में जा बैठे।जयपुर की सेनाओं ने जोधपुर नगर को घेर लिया। खण्डेला के राजाओ की सेना बालसमन्द झील के पास डेरा डाले हुए थी।यह युद्ध कई महीनों चला। युद्ध मे तोपों के गोलों से वृद्धवीर वृन्दावन दास मारे गए और उसी युद्ध मे उंसके पौत्र नरसिंगदास घायल होकर मारे गए। उन दोनों दादा-पौते का दाह संस्कार मंडोर के बाग में किया गया। जहाँ जोधपुर के कई राजाओ के थड़े बने हुए है। नरसिंगदास के बालक पुत्र अभयसिंह को खण्डेला से शीघ्रता पूर्वक लाने का जिम्मा रायपुरा के ठाकुर हनुवंत सिंह ने उठाया था।
उंसके बाद अभय सिंह को खण्डेला के बड़े पाने का राजा बनाया गया।
#क्रमशः

कोई टिप्पणी नहीं:

लोकप्रिय पोस्ट

ग्यारवीं का इश्क़

Pic- fb ग्यारवीं के इश्क़ की क्या कहूँ,  लाजवाब था वो भी जमाना, इसके बादशाह थे हम लेकिन, रानी का दिल था शायद अनजाना। सुबह आते थे क्लासरूम में...

पिछले पोस्ट