सोमवार, 8 मई 2023

खंडेला का इतिहास भाग -23

राजा नरसिंगदास खंडेला पर मराठा आक्रमण




गतांक से आगे-
अब खण्डेला की राजगद्दी पर नरसिंह विराजमान थे और बाकी भाइयों को अलग-अलग गाँवो की जागीर मिली।खण्डेला ठिकाने का पुनः मिलने के बाद नरसिंह 18 साल जीवित रहा,किंतु यह समय उंसके लिए सही नही रहा।दुर्भाग्य ने उसका साथ कभी नही छोड़ा।अल्पायु,अपरिपक्व, खजाना खाली, अच्छे कर्मचारियों का अभाव, और सैन्य बल की कमी हमेशा रही। उसी समय सीकर का शेखावत शासक अपने राज्य विस्तार में लगा था और एक एक करके खण्डेला के गाँवो को अपने कब्जे में कर रहा था। कासली, बलारां, मंगलूणा,कूदन, आदि ठिकाने राव तिर्मल जी वालो ने कब्जे कर लिए।लोहागर्ल के आस पास के गाँव पिपराली,खोह, गुंगारा आदि भी अपने कब्जे में ले लिए।
खोह गाँव की भीमलीं पर्वत पर एक सुदृढ़ दुर्ग बनाकर उसे "रघुनाथगढ़" नाम दिया गया और बाद में उंसके पास बसे गाँव खोह का नाम रघुनाथगढ़ ही पड़ गया जो सीकर की सबसे ऊंची चोटी होने का गौरव भी रखता है।यह रघुनाथ गढ़ आज खण्डेला-उदयपुर वाटी रोड पर स्थित है और गढ़ भी क्षत-विक्षत अरावली की पहाड़ी पर खड़ा है। इस प्रकार देवी सिंह ने 28 से अधिक गांव जो खण्डेला के थे अपने कब्जे में ले लिए।

नरसिंह दास के समय ही खण्डेला पर मराठों का आक्रमण हो गया।ग्वालियर का मराठा शासक माधवराव सिंदिया जो शाह आलम द्वितीय का रीजेंट था,विक्रमी1844 में लड़े गए "तुंगा के युद्ध" में जयपुर-जोधपुर की सयुंक्त सेनाओं से करारी मात खाकर, युद्ध से पलायन कर गया।तीन साल बाद सेना सुदृढ़ करके वापस जोधपुर जयपुर पर आक्रमण किया। उसकी प्रशिक्षित कवायदी सेना और तोपखाने के साथ उंसके सेनापति डिबायन ने तंवरावाटी के पाटण कस्बे  के पास पहाड़ियों से घिरे मैदान में जोधपुर की घुड़सवार सेना, जयपुर के दादू पन्थियों की सेना,और मिर्जा इस्माइल बेग की घुड़सावर सेना को अपने तोपखाने के प्रभाव से भागने पर बाध्य कर दिया। यह पाटन का युद्ध 20 जून 1790 में  हुआ था ।तत्पश्चात जनरल डिबायन मुख्य मराठा सेना के साथ अजमेर पर अधिकार करने उधर गया और बाकी दल शेखावतों से कर संग्रह हेतु शेखावाटी में प्रवेश कर गए।

पाटण के समीप बबाई दुर्ग को लूट लिया गया इसके बाद खण्डेला की तरफ बढ़े और होद गाँव मे मराठों ने डेरे डाल लिए जहां सेना और पशुओं के लिए पानी की उत्तम व्यवस्था थी जो पहले भोजराज द्वारा बनाया भोजसगर तलाब पानी से भरा था। वहां से एक पंडित को खण्डेला दुर्ग में भेजा गया और कहलवाया गया कि 20000 रुपए दण्ड स्वरूप अदा करो वरना कस्बा लूट लिया जाएगा। खण्डेला के दोनों राजाओ की तरफ से विश्वस्त भाइयो के दो व्यक्तियों को दण्ड के रुपयों की राशि नियत करने हेतु मराठो के शिविर भेजा गया उनके नाम दलेल सिंह और नवलसिंह था।बातचीत के बाद दोनों सरदारों में दण्ड की राशि प्रबन्ध हेतु वापस खण्डेला नगर में जाने को कहा और तक के लिए जामनी कर्मचारियों को वहां छोड़ने की बात कही। लेकिन मराठा अधिकारी ने जब तक पैसे नही आ जाये तब तक दोनों को जाने नही दिया। दलेल सिंह ने अपने सेवक से हुक्का लिया और पीने लगा। एक मराठा सैनिक उंसके हाथ से हुक्का छीन लिया और फेंक दिया।क्रोध से भरा दलेल सिंह अपनी तलवार म्यान से निकाली और सैनिक का सर काट दिया,इतने में एक मराठा सेना अधिकारी ने गोली मारकर दलेल सिंह को मौत के घाट उतार दिया। उनके साथ गए लोग वही मराठा विद्रोह में मारे गए। नरसिंह दास को छोटी आयु ध्यान रखकर कही भेज दिया गया। उस काल में अन्य पाने में इंद्र सिंह मौजूद था। वह बातचीत का परिणाम जानने हेतु मराठा शिविर की तरफ जा रहा था।जब नजदीक पहुँच देखा तो उसके आदमियों को मार दिया गया था। साथ के लोगो ने उसे वापस खण्डेला जाने की राय दी किंतु उंसके क्षत्रित्व ने इसे जाने नही दिया।

वह लड़ना निश्चित कर चुका था और शिविर की तरफ बढ गया और लड़ते-लड़ते बहुत से मराठा सैनिको को मौत की नींद सुला गया। इस आक्रमण के बाद खण्डेला नरसिंह और दूसरे पाने में इंदरसिंह के पुत्र प्रताप सिंह के पास बना रहा और मराठो को निश्चित कर देना ही सामन्तों ने उचित समझा और उनसे खण्डेला को मुक्त कराया।
#क्रमशः

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