मन का परिंदा
फ़ोटो- फेसबुक
क्यों नफरतों के दौर में जीता है,
क्यों बंदिशों में बंधा रहता है।
खोल दे खुद के पंखों को, और
देख आसमाँ में एक परिंदा भी रहता है।
माना कि नही हो सकती उसकी बराबरी,
मगर मन के परिंदे को आजाद करके तो देख।
हो न जाये चिंताओं के बादल दूर अब,
थोड़ा अपने मन के अभ्यास को करके तो देख।
मुश्किलें तो बहुत है इस अनजान सफर में,
मगर कोई हल सोच कर तो देख।
होता है इसका भी समाधान मन के किसी कोने में,
थोड़ा स्मृतियों पर जोर देकर तो देख।
हताशा भी होती है एक विकट समस्या,
जिसने न जाने कितनों के रास्तों को रोका है
बस थोड़ा उत्साहित होकर, सोच
फिर सफलता भी आखिर एक हवा का झौका है।
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