बुधवार, 2 सितंबर 2020

मजदूर

              ( श्रमिक की व्यथा - सांझा संग्रह में प्रकाशित)     


                                

कैसा ये अभिशापित सा जीवन मिला,
यहां हर कोई अपने से बड़ा मिला।
लगे रहो दिन भर मेहनत को,
फिर भी कोई प्रशंसक न मिला।

भारत निर्माण को लगा हूँ,
होकर तरबतर पसीने से।
परवाह नही किसी को भी,
मेरे जीवन के अंधेरे से।

न कोई मुकम्मल पता ठिकाना है,
जीने का बस परिवार ही एक बहाना है।
सभ्य समाज मे है फिर भी कितने फोड़े,
चलाते रहते है लोग आत्मा पर हथोड़े।

कुछ तो बेबस और लाचार हूं,
परेशानी के आगे जो मजबूर हूं।
करने को तो कोशिश करता मैं भी हूँ,
पर कर न पाता मैं, जितना करना चाहता हूँ।

कुछ तो है इतने कठोर कि,
मेरी मेहनत भी उनको कम लगती है।
कर लूं चाहे लाख जतन मैं उनके लिए,
हर एक कीमत उनको गहरी लगती है।

कुछ मीठे सपने लेकर मैं, भी शहर में आया,
लेकिन देख मरती आत्मा को, यह शहर मुझे न भाया।
पर कुछ लाचारी और मजबुरी थी मेरी,
कई आंखे रोज शाम को इंतजार में थी मेरी।

लोगों के उज्जवल सपने को जीते-जीते,
जीवन मैने सारा गुजार दिया।
आखिर सहते-सहते सब कुछ,
मजबूरी और मजदूरी में जीवन सारा हार गया।

कोई न जाने व्यथा मेरी, दर- दर भटकता जाता हूँ,
फिर भी करके दृढ़ निश्चय,आगे बढ़ता जाता हूँ।
बिना सोचे कल की, मैं सिर्फ आज में जीता हूँ,
आखिर मजबूर हूँ मैं, इसलिए मजदूर कहलाता हूँ।

आनन्द

4 टिप्‍पणियां:

विश्वमोहन ने कहा…

मज़दूरों की व्यथा का मार्मिक पक्ष प्रस्तुत करती एक अत्यंत जीवंत और सशक्त रचना। बधाई और आभार!!!

आनन्द शेखावत ने कहा…

धन्यवाद विश्वमोहन दा।

दिव्या अग्रवाल ने कहा…

आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज बुधवार 02 दिसंबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

सुशील कुमार जोशी ने कहा…

सुन्दर सृजन

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