चौपाल गाँवों की
था न दम चौपाल में,
क्या रखा अब इस पार्क में,
पेड़ - पौधे गिनती भर लगाते,
उसमे भी दुगने लोग समाते।
कहाँ गया वो जमाना,
जब न था कोई स्थायी ठिकाना,
मन किया वही बैठ जाया करते थे
और शुद्ध प्राणवायु पाते थे।
राम-राम से शुरू करते- करते,
हाल एक दूसरे का सारा जान लेते थे,
बैठे -बैठे, जब देर भी अगर हो जाती तो,
कलेवा भी वही निपटा लेते थे।
लड़ाई जब भी होती एक दूसरे से,
खुद ही पांच लोग मिलकर सुलझा लेते थे,
न कोई पुलिस और कोर्ट-कचहरी,
फिर भी आपस मे रहती थी मानसिकता हरी-भरी।
थे अनपढ़ सारे के सारे,
फिर भी उंगलियों पर गणित लगा लेते थे।
फिर भी होता अगर कम ज्यादा तो,
खुशी-खुशी हिसाब अपना निपटा लेते थे।
न कमी थी धन- धान्य की,
पूरे दिन खेत मे मेहनत करते थे,
आ भी जाये कोई सुख- दुख तो,
सबका हाथ बटाते थे।
नियत साफ थी उनकी, जैसे बहते पानी सी,
तभी शायद प्रकृति भी,उनका साथ निभाती थी,
अटूट मेहनत और विश्वास की नींव से ही,
कम संसाधन में भी, फसल सोने सी लहलाती थी।
#विनम्र अपील- ज्यादा से ज्यादा पेड़ लगाए और कोरोना के बाद तो स्तिथि आपके सामने है ही, बाकी एक दूसरे का ख्याल रखे।
जय हिंद दोस्तों
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